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अध्यात्म - पितृपक्ष में विशेष

पितरो का पिण्डदान आवश्यक : चरक

भारतीय चिकित्सा विज्ञान का दर्शन आस्तिकता से ओत-प्रोत है। वह नास्तिक और नास्तिकवाद को घोर त्याज्य बताता है। चरक से पूछा गया कि सबसे अधिक त्याज्य क्या है? उन्होंने कहा- (नास्तिको वर्ज्यानां (श्रेष्ठतमो) भवन्ति।। च.सू. २५/४०।। यानी नास्तिक व्यक्ति का साथ त्याग देना सर्वश्रेष्ठ त्याग है।

आज ऐसे चतुरों और दम्भियों की जमात तैयार हो रही है जो शास्त्रीय मर्यादाओं और विधि-विधानों की केवल आलोचना ही नहीं करते बल्कि अतिक्रमण भी करते हैं। ऐसे लोग मूढ़ होते हैं। ऐसे लोगों के विषय में अङ्गिरस् स्मृति के इन वचनों का मनन कर लेना चाहिए। मानव को धन, जवानी विद्या के मद से मदान्ध होकर भी अन्याय, द्रोह, क्रूरता, सामाजिक मर्यादाओं और सदाचार का अतिक्रमण तथा अनादर नहीं करना चाहिए और न किसी को करने देना चाहिए। अन्यथा ऐसा करने वाला और इस ओर प्रेरणा देने वाला, उसमें नियोजित करने वाला, सहायक सहित शीघ्र पतन की ओर चले जाते हैं-

‘‘अत्यन्यायमतिद्रोहमतिकौर्यं कलावपि।
अत्यक्रमं चात्यशास्त्रं न कुर्यान्नपि कारयेत्।
यदि कुर्वीत मोहेन सद्यो विलयमेष्यति।
कर्त्ता कारयिता चापि प्रेरकश्च नियोजक:।
तत्सहायश्च सर्वे ते लयमेष्यन्ति सत्वरम्।।’’

अङ्गिरस् स्मृति, पूर्वाङ्गिरस् स्मृति १८-१९
(स्मृति सन्दर्भ ५ पृष्ठ २९५९)।।

इस प्रमाण से यह भी ध्वनित होता है कि जैसे अन्याय, अनाचार से उसके सहायकों, योजकों से उसके सहायकों, योजकों सहित पतन हो जाता है वैसे ही न्याय, धर्म, सदाचार पालन से उसके सहायकों, योजकों सहित कल्याण भी होता है।

यदि यह तथ्य निराधार, कपोल कल्पित तथा अप्रमाणित होता तो दुनिया के महान् चिकित्सा वैज्ञानिक आचार्य चरक यह न लिख देते कि-

धर्म्या: क्रिया हर्षनिमित्तमुक्तस्ततोऽन्यथा शोकवशं नयन्ति।।

च.शा. ४/२/४१।।

यानी धर्मपरक क्रियायें हमेशा हर्ष का निमित्त कही गयी हैं इसके विपरीत कर्म यानी अधर्म परक कर्म व्यक्ति शोक और दु:ख देते हैं।

इसीलिए चिकित्सा के इस महान् वैज्ञानिक ने १/८ में सद्वृत्त (Description of Right conducts : Party Medical Ethics) उल्लेख किया है, उन्होंने लम्बे शोध, प्रयोग और अनुसंधान के बाद लिखा कि ‘‘जिसे अपना भला चाहिए उसे अपनी स्मरशक्ति (होशो हवस) को व्यवस्थित रखते हुए, बिना किसी लापरवाही के सद्वृत्तों का पालन करना चाहिए। इसका पालन करने से एक साथ दो लाभ हो जाते हैं पहला आरोग्य और दूसरा इन्द्रियों पर सयंम। इन्द्रियों के संयम से मन में प्रसन्नता आती है जिससे सभी दु:खों का नाश हो जाता है। प्रसन्न चित्त से बुद्धि में स्थिरता आती है और मनुष्य सुखी होता है। चरक ने इन्हीं सद्वृत्तों में ‘यष्टा, दाता अतिथीनां पूजक:’ यानी हर व्यक्ति को यज्ञ, हवनकर्त्ता अतिथियों का सम्मान कर्त्ता बनने की सलाह दी है और तो और देवगोब्राह्मणगुरुवृद्धसिद्धाचार्यानर्चयेत्।। १/८/१८।। यानी दिव्यात्माओं, गाय, ब्रह्मकर्म साधक, गुरु, वरिष्ठ, सिद्ध और आचार्य की अर्चना करने की सलाह दी है और बताया कि इन सब कार्यों से स्वास्थ्य लाभ और इन्द्रियों पर संयम होता है जो आरोग्य का अद्भुत आधार है।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में न्यूरोसाइंस विभाग के अध्यक्ष विलियम मोब्ले कहते हैं कि सद्वृत्त के पालन से मस्तिष्क में ‘लव हार्मोन’ आक्सीटोसीन का एक शॉट देता है जो रक्तचाप कम करने और सामाजिक जुड़ाव पैदा करने में बहुत मदद करता है वहीं डोपामाइन हार्मोन की वृद्धि होती है जो नया उत्साह देती है।

हमारे धर्म शास्त्रों में पितरों को पिण्ड दान करने का विधि-विधान और नियम रखा गया है। गरुड़ महापुराण उत्तर. में स्पष्ट बताया गया है कि पितरों का श्राद्ध बहुत ही श्रद्धापूर्वक करना चाहिए इससे पितर तृप्त होते हैं और श्राद्धकर्त्ता को सुखी रहने का आशीर्वाद देते हैं-

तृप्ताश्राद्धेन ते सर्वे दत्त्वा पुत्रस्य वाञ्छितम्।।

१३/१३१

अग्निपुराण १५७/३१ में तो यहाँ तक कह दिया गया है कि मृतात्मा भले ही देवलोक में या नरक में या किसी योनि विशेष में जन्म ग्रहण कर चुका हो, उसके लिए किया गया श्राद्ध उसे अवश्य प्राप्त होता है। महाभारत में इसे पितृयज्ञ बताया गया है और कहा है कि श्राद्ध से धन धान्य की वृद्धि, यश प्राप्ति और संतान भी सुखी रहती है-

धन्यं यशस्यं पुत्रीयं पितृयज्ञं परं तप।।

श्री महाभारत अनुशासन पर्व ८७/३१।।

ये तो हुये धर्माचार्यों के विचार। पर महान् चिकित्साचार्य भी स्पष्ट लिखते हैं कि- पितृभ्य: पिण्डद:।। च. १/८/१८।। अर्थात् पितरों को पिण्डदान अवश्य करें। इसका परिणाम आरोग्यजनक होता है। यद्यपि श्राद्ध करना अनिवार्य है उसमें पिण्डदान का कर्मकाण्ड भी है पर आचार्यों ने साफ मना किया है कि श्राद्ध में बहुत बड़ा भण्डारा, भोज और विस्तार नहीं करना चाहिए।

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"चिकित्सा पल्लव" - मासिक पत्रिका
अंक-8, अगस्त -2022

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