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गर्मी में सतर्कता और स्वास्थ्य सुरक्षा!

हाई ब्लडप्रेशर व मधुमेह के मरीजों के लिए विशेष ध्यान!!

भीषण गर्मी से परेशानी तो सभी को होती है लेकिन मधुमेह और रक्तचाप से पीड़ित लोगों में इसका जोखिम अधिक पाया गया। स्पेन से एजेंसियों के सन्दर्भ से समाचार आया है कि एक रिसर्च से स्पष्ट हुआ है कि बढ़ते तापमान को मधुमेह और रक्तचाप के रोगी झेल नहीं पा रहे हैं। अस्पतालों में दोगुने आँकड़े से रोगी पहुँच रहे हैं।

स्पेन में शोधकर्ताओं ने १० साल से अधिक समय के दौरान गर्मी से अस्पताल पहुँचने वाले मधुमेह और बीपी के मरीजों का आंकड़ा लिया, इसमें पता चला कि मधुमेह और रक्तचाप के मरीजों की परेशानी गर्मी में अधिक बढ़ गयी है।

वस्तुत: मनुष्य के शरीर का तापमान ३७ डिग्री सेल्सियस होता है जबकि त्वचा का तापमान ३५ डिग्री सेल्सियस होता है। अलग-अलग तापमान के कारण ही पसीना निकलता है जब पसीना भाप बनकर उड़ता है तो जो शरीर के अन्दर की गर्मी भी ले उड़ता है। ऐसे में शरीर का चयापचय गड़बड़ होने लगता है, इम्यून सिस्टम कमजोर होने लगता है और मधुमेह और रक्तचाप के मरीजों पर जोखिम बढ़ जाता है।

जर्नल एन्वायर्नमेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव में प्रकाशित अध्ययन के लेखक अचेवक ने कहा, गर्मी में तापमान बढ़ने के साथ ही शरीर में ब्लड शुगर का स्तर अधिक हो जाता है जो मधुमेह के मरीजों के लिए परेशानी का कारण है। अधिक गर्मी से पसीना अधिक निकलता है और जलीयांश की कमी हो जाती है। इससे रक्त में शर्करा का स्तर बढ़ जाता है। वही हाल रक्तचाप के मरीजों का भी है।

मोटे लोगों की स्थिति अलग होती है, उनकी निष्क्रियता के चलते उनका फैट असंतुलित होता है। यह बात बार्सिलोना इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ के शोधकर्ताओं ने बताया।

इस वर्ष १४ मई से १७ जुलाई तक गर्मी की ऋतु का कालचक्र है। सदैव ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक जड़-चेतन जगत पर ऋतु का प्रभाव पड़ता है। यही कारण है यदि कोई गंभीर रोग से ग्रस्त है तो उन्हें विशेष समस्यायें हो जाती हैं। इसलिए ऋतु को समझकर उसके अनुसार अपनी जीवनशैली अपनाकर प्रत्येक मानव अपना और अपनों का स्वास्थ्य सुरिक्षत रख सकता है तथा उसे उन्नत और संवर्धित कर सकता है।

सच तो यह है कि किसी भी ऋतु को अपने क्रिया-कलापों (कर्मों) के आधार पर आनन्ददायक भी बना सकते हैं मारक तथा रोग कारक भी। इस ऋतु को ग्रीष्म इसलिए कहते हैं कि यह ‘ग्रसते रसानिति (ग्रीष्म:)।’

अर्थात् यह ‘ऋतु’ जगत के रस अर्थात् तरलता, जलीयांश को ग्रास बनाती है। जब प्राणियों के जलीय सार भाग का ऋतुजन्य शोषण होता है तो इसकी थोड़ा-थोड़ा पूर्ति भी करते रहना चाहिए अन्यथा जलीय सार भाग के नष्ट होने से रुक्षता बढ़ती है।

आचार्य चरक ‘वात’ के सप्त गुणों का वर्णन करते समय ‘रुक्षता’ का प्रथम उल्लेख करते हैं (च.सू. १/५९) इसलिए रुक्षता बढ़ने से शरीर, वायु की वृद्धि होगी, उधर शरीर के जिस-जिस अवयवों से जलीयांश घटेगा वहाँ-वहाँ वायु अपना स्थान बना लेता है।

देहे स्रोतांसि रिक्तानि पूरयित्वाऽनिलो बली।

च.चि. २८/१८

इसलिए इस ऋतु में आचार्य चरक बताते हैं कि मधुर, प्रकृति और गुणों से शीतल जलीयांश युक्त और चिकनाई युक्त खान-पान का चयन करना चाहिए। सब्जी और दाल में पानी की मात्रा पर्याप्त रहे।

यदि खिचड़ी या दलिया का सेवन करें तो वह जलीयांश तथा गोघृत से युक्त हो।

आचार्य चरक इस ऋतु में मधुर, स्निग्ध और शीतल प्रकृति के खान-पान की सलाह देते आ रहे हैं, किन्तु उसी चरक के इस देश में अब अज्ञानता की पराकाष्ठा देखिए कि इस प्रचण्ड गर्मी में भी लोग चाय, कॉफी जैसे रुक्ष, कषाय, गरम, तीक्ष्ण नशे का त्याग नहीं कर पाते। छोटी-छोटी गल्तियों का संचयन होते-होते जब गंभीर व्याधि सामने आती है तब कहते हैं कि हमने तो कोई गलती की नहीं फिर बीमारी कैसे हो गयी?

२३ मई २०२४ को शहडोल (म.प्र.) से डॉ. परमानन्द तिवारी उम्र ६७ वर्ष आयुष ग्राम के प्रकल्पों को देखने आये ये एम.ए., एल-एल.बी., पी-एच.डी., आयुर्वेद स्नातक भी हैं। वे आयुर्वेद की सेवा में न जाकर म.प्र. के उच्च शिक्षा विभाग की सेवा में चले गये वहीं से सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने जब अपना रक्तचाप चेक कराया तो १२०/८० आया, यानी स्वस्थ युवाओं जैसा। डॉ. तिवारी जी के साथ सेवानिवृत्त एक प्रधानाचार्य श्री सुदामा प्रसाद तिवारीजी भी थे। डॉ. परमानन्द तिवारी कितने सौम्य, भावुक, शांत और धैर्य युक्त थे। हम उनका स्वास्थ्य देखकर प्रसन्न हो गये कि यह है सात्विक जीवन का परिणाम।

डॉ. तिवारी जी ‘चिकित्सा पल्लव’ के लम्बे समय से पाठक और आज भी उनकी सत्साहित्य पढ़ने में रुचि। आज का नवयुवक ऐसे वरिष्ठजनों का अनुकरण कर अपने जीवन को सार्थक क्यों नहीं बनाता? क्यों फंसा है अस्पताल और दवाओं में वह भी लगातार।

दिल्ली एम्स के कम्युनिटी मेडिसिन के प्रोफेसर संजय राय भी कहते हैं कि ग्रीष्म ऋतु अर्थात् मई, जून में तो भारत के लोगों को चाय, कॉफी से अधिकतम दूरी बना लेनी चाहिए।

इस ऋतु में हाई ब्लडप्रेशर और मधुमेह के रोगियों को बहुत ही सावधानी बरतनी चाहिए, थोड़ी से असावधानी ब्लड शुगर और ब्लडप्रेशर की बीमारी को बढ़ा सकती है। यदि आप स्वस्थ भी हैं और इस ऋतु में सतर्कता नहीं रखते तो मधुमेह और ब्लडप्रेशर के रोगी हो सकते हैं। क्योंकि ये दोनों रोग शरीर के वायु दोष के प्रकुपित होने से होते हैं कारण कोई भी बने, पर उन कारणों से वायु दोष प्रकुपित होगा ही फिर इन रोगों की उत्पत्ति होगी।

इसलिए आचार्यों की बात मानकर सभी को इस ऋतु में शीतल, मिठास (मिठास में देशी गुड़ या मिश्री युक्त) सत्तू का घोल सेवन करना चाहिए। जिन्हें मधुमेह नहीं है वे गोघृत-गोदुग्ध और शालि चावल के भात या खिचड़ी का सेवन अवश्य करें।

‘‘घृतं पय: सशाल्यन्नं भजन् ग्रीष्मेन सीदति।।’’

च.सू. ६/२८।।

इससे सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि व्यक्ति ग्रीष्म ऋतु में होने वाली शारीरिक समस्याओं से ग्रस्त नहीं होता यदि मधुमेह ग्रस्तता है तो चावल के स्थान पर जौ या देशी गेंहूँ की दलिया को गोघृत में भूनकर अच्छे से पकाकर लेना चाहिए।

इस ऋतु में भोजन में एक विशेष सावधानी बरतने के लिए वाग्भट कहते हैं कि-

भजेन्मधुरमेवान्नं लघु स्निग्धं हिमं द्रवम्।।

अ.हृ. ४/२८।।

कि भोजन मधुर हो, स्निग्ध हो, ठण्डी प्रकृति का हो, रसदार या जलीयांश सम्पन्न हो पर पचने में हल्का हो अर्थात् इस ऋतु में मात्रा गुरु (इतनी मात्रा में जितने में पेट भारी हो जाये) और द्रव्य गुरु (ऐसा द्रव्य जो प्रकृति से ही भारी हो) आहार का परित्याग करना ही है अन्यथा बहुत बड़ी चूक हो जाएगी।

इस ऋतु में मद्यपान या अन्य कोई नशीली वस्तुओं का सेवन त्याग देना चाहिए। मद्यपान के आदी लोग मद्य को एकदम न त्यागकर धीरे-धीरे छोड़ दें अन्यथा यह ब्लडप्रेशर, लिवर, किडनी, पाचनक्रिया, मानसिक स्थिरता के लिए घातक है।

ग्रीष्म ऋतु चटपटेदार भोजन की ऋतु नहीं है शास्त्र कहता है-

लवणाम्लकटूष्णानि व्यायामं चात्र वर्जयेत्।।

च.सू. ६/२९।।

वाग्भट कहते हैं-

अतोस्मन्पटुकट्वम्लव्यायामार्ककारांस्त्यजेत्।।

अ.हृ. ३/२७।।

कि इस ऋतु में लवण, कड़वे, खट्टे, रसयुक्त आहारीय पदार्थों तथा शारीरिक श्रम और धूप का त्याग करना चाहिए।

क्योंकि ये तीनों रस अग्नि महाभूत युक्त हैं जो शरीर में शीतलता नहीं आने देते और पित्त को बढ़ाते हैं, उधर इस ऋतु के कारण वायु का संचय होता है, वृद्धि भी साथ में, यदि हमने किसी कारण से पित्त को बढ़ा लिया तो वही स्थिति बनेगी कि कहीं आँधी चल रही हो और आग भी लग जाय। इसलिए आचार्यों, भारतीय चिकित्सा वैज्ञानिकों ने गरम रसों के सेवन की मनाही की है।

ग्रीष्मकाल में ब्रह्मचर्य का कड़ाई से पालन करने का निर्देश दिया गया है।

ग्रीष्मकाले निषेवेत मैथुनाद विरतो नर:

(च.सू. ६/३२)

संयम से आयु की वृद्धि होती है, मन उत्साहित, सकारात्मक और ऊर्जावान् रहता है। इसके पीछे सबसे बड़ी वैज्ञानिकता यह है कि ब्रह्मचर्य के पालन से ओज की वृद्धि और संरक्षण होता है। ओज में गुरु, शीत, मृदु, श्लक्ष्ण, बहल, मधुर, स्थिर, प्रसन्न, पिच्छिल और स्निग्ध गुण होते हैं। (च.चि.२४/३५) तो शरीर में इन गुणों का आधान होता जाता है।

जब ओज की वृद्धि और पुष्टि होती है तो ग्रीष्म ऋतु का दुष्प्रभाव नहीं होने पाता। ग्रीष्म ऋतु में वायु का संचय/वृद्धि और कफ का क्षय होता है-

प्रत्यहं क्षीयते श्लेष्मा तेन वायुश्च वर्धते।।

अ.हृ. ३/२७।।

यह ‘कफ’ जब संतुलित और प्रकृतिस्थ रहता है तो ‘बल’ भी कहलाता है और ओज स्वरूप भी है। (च.सू.१७/११७)।

ओज की गुरुता, मृदुता, मधुरता, स्थिरता, प्रसन्नता, पिच्छिलता और स्निग्धता जैसे गुण ग्रीष्म ऋतु में बढ़ी हुयी वायु की रुक्षता, लघुता, खरता, विशदता, कटुता, चलत्वता को शमन करते हैं। इससे प्राकृतिक रूप से स्वास्थ्य संरक्षण होता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में ब्रह्मचर्य जैसा कोई निर्देश और अवधारणा ही नहीं रखी जाती। यही कारण है कि बीमारियों की अभिवृद्धि होती है।

अभी ५-६ दशक पूर्व तक ग्रीष्मकाल में घर-परिवार के पुरुष वर्ग खलिहान में, आँगन में, घर के दरवाजे में, मैदान में एक साथ अपनी-अपनी चारपाई बिछाकर लेटते थे। प्रकृति प्रदत्त शीतल, मन्द वायु और चन्द्रिका का आनन्द लेते थे, ब्रह्ममुहूर्त में बिस्तर छोड़कर अपनी दिनचर्या में लग जाते थे। किन्तु आधुनिकता के भ्रम, संकीर्णता, विलासिता और निजता की मानसिकता ने बहुत हानि पहुँचायी है कि जिनके घर में आँगन, मैदान, छत, खुला वातावरण भी है वे तक कमरे में पंखा, एसी और कूलर लगाकर रात में सोते हैं। जिससे घोर मानसिक और शारीरिक हानि उठानी पड़ रही है। जागृत आत्माओं को इन सभी पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए तभी सब ठीक होगा।

चरक तो इतना ही कहते हैं कि
ग्रीष्मकाल में व्यक्ति ब्रह्मचर्य धारण करें और ब्रह्मचर्य नाशक वृत्ति से विरत रहें। किन्तु सुश्रुत तो सुश्रुत हैं वे कारण सहित लिख देते हैं-

व्यायाममुष्णमायासं मैथुनं परिशोषि च।
रसांश्चाग्निगुणोद्रिक्तान् निदाघे परिवर्जयेत्।।

सु.उ. ४४/४०।।

यह ऋतु पूरी तरह से आदान काल आग्नेय गुण युक्त होती है रसतत्व का आचूषण करती है इसलिए शारीरिक परिश्रम, उष्ण पदार्थ, मृदुश्रम, अब्रह्मचर्य तथा ऐसे कार्य जिनसे शरीर की रस धातु क्षीण हो, जलीयांश घटे, प्यास बढ़े, शरीर का परीशोषण हो, कड़वे, खट्टे, नमकीन आदि अग्नितत्व युक्त पदार्थ इस ऋतु में निषिद्ध रखें। ध्यान रहे इस वर्ष, ग्रीष्म ऋतु १४ मई से १७ जुलाई तक है।

पर अज्ञानता देखिए कि इसी ऋतु में लोग खूब चटपटे पदार्थ, नमकीन, नींबू, खट्टे आम, खूब मिर्च, मसाले खाते हैं परिणामत: उनके वात, पित्त और कफ तीनों दोष असंतुलित होते हैं, पूरा चयापचय अस्त-व्यस्त होने लगता है फिर ब्लडप्रेशर, थायरायड, हड्डियों की दुर्बलता, अनिद्रा, पाचन तंत्र की गड़बड़ी होने लगती है और हृदय रुग्ण होता है मधुमेह की भी संभावना बन जाती है। क्योंकि आचार्य चरक (च.सू. १७/७८) मधुमेह होने का कारण केवल गरिष्ठ और मधुर पदार्थ ही नहीं, बल्कि नमकीन और खट्टे पदार्थ का अतिसेवन भी बताते हैं। अमेरिका में तुलाने यूनिवर्सिटी ने भी अपने एक शोध में पिछले वर्ष बताया कि नमक या नमकीन का अतिसेवन भी मधुमेह कारक है।

अपने भारतीय चिकित्सा वैज्ञानिकों की एक और वैज्ञानिकता देखने योग्य है कि उन्होंने तिक्त रस, कषाय रस वाले पदार्थ सेवन के लिए मना नहीं किया, क्यों? वह इसलिए कि ग्रीष्म ऋतु मधुर रस सेवन करने पर यदि स्रोतोरोध या कफ दोष के अतिवृद्धि की संभावना हो तो ये ‘रस’ उन्हें मिटायेंगे।

इसलिए अपने पूर्वजों, ऋषियों, आचार्यों के शोधों का पूरा अवलम्बन लेकर जीवन को उच्चता की ओर ले जायें।

हम पुन: दोहरा दें कि शास्त्र कहता है कि इस ऋतु में प्रकृति से शीतल जैसे द्राक्षा, अंगूर, खरबूज, सेब, मधुर रसयुक्त, सत्तू का घोल, गोघृत और गोदुग्ध जिसमें मिश्री, इलायची मिला हो, पतली ठण्डी खीर का सेवन करना चाहिए।

यदि नींबू या कोई भी अम्ल रस सेवन करना है तो उसमें मधुर रस और शीतल मसाले जैसे इलायची का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।

हम आशा करते हैं कि मानव कल्याण की भावना और आत्मा लेकर यह जानकारी सभी में वितरित करेंगे ताकि मानव मात्र अस्पतालों और रोगों से बचें, अपने कार्य, व्यवहार के प्रति शक्तिशाली बने रहें।

एक और तथ्य समझने का है आपने पीछे ओज की चर्चा पढ़ी, इस ऋतु में आचार्यों ने मधुर, शीतल, सुपाच्य खान-पान का इसीलिए निर्देश दिया है। यह खान-पान ओजवर्धक है। सदैव ध्यान रखना चाहिए कि ओज और हृदय का आश्रय आश्रयी सम्बन्ध है। जब कोई इस ऋतु में ओज का क्षय करने वाले कार्य करता है तो सीधे हार्ट के रुग्ण होने या अटैक की भूमिका बन जाती है उधर मधुमेह की नींव तैयार होने लगती है। इसलिए इस पर कोई चूक नहीं होना चाहिए।