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संत कबीर जयन्ती पर विशेष - संत कबीर के आगे महापण्डित पद्मनाभ झुके!!

ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को संत कबीरदास जी की जयंती मनायी जाती है। इस वर्ष यह तिथि २२ जून २०२४ को है। कबीरदास जी का जन्म एक दैवीय व्यवस्था के अन्तर्गत था इसलिए उनकी बुद्धि दैवी सम्पदा से युक्त थी। उस समय जाति-पाति का भेदभाव चरम सीमा पर था, तब कबीर नामक युवक में

‘लियो भक्तिभाव जाति पॉति सब टारियै।’

भ.मा.।।

भक्ति मार्ग की लहरें उठ रहीं थीं, किन्तु समस्या यह थी कि उन्हें कोई मंत्र दीक्षा देने को तैयार नहीं था।

एक दिन कबीर को अंत: प्रेरणा हुयी और वे काशी में गंगाघाट की सीढ़ी पर लेट गये। आचार्य रामानन्द जी नित्य ब्रह्म मुहूर्त में गंगा स्नान के लिए आते थे। सीढ़ियाँ उतरते समय उनका पैर एकाएक कबीर के सिर पर पड़ गया, सहसा उनके मुख से निकल गया अरे! राम-राम कहो बेटा।

बस क्या था कबीर को ‘नाम’ मिल गया साधना का आधार मिल गया। कबीर ने उसे मंत्र के रूप में ग्रहण कर लिया और घर चले आये। वे तिलक लगाने लगे, जप करने लगे, कण्ठी धारण करने लगे, अपना नाम कबीरदास रख लिया। सब जगह बात फैल गयी कि कबिरा अपने को श्री रामानन्दाचार्य जी का शिष्य कहता है। काशी के लोग श्री रामानन्दाचार्य जी के पास पहुँचे उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि मैंने तो उसका मुँह तक नहीं देखा, शिष्य बनाने की बात कहाँ है?

सभा एकत्र हुयी, कबीरदास जी को बुलाया गया। श्री मदाद्य रामानन्दाचार्य जी ने पूछा कि बेटा, तुम किसके शिष्य हो और कहाँ पर मंत्र ग्रहण किया। कबीरदास जी ने कहा कि गुरु जी! आप ही मेरे उद्धारक हैं, मंत्रदाता हैं, मैं आपका शिष्य हूँ।

श्री रामानन्दाचार्य जी ने कहा कि बेटा राम, राम कहो, झूठ मत बोलो। कबीरदास जी ने कहा कि लो महाराज! मैं अब तो आपका शिष्य हो गया न? आपने मुझे सबके सामने राम-राम कहने का आदेश दिया।

श्री रामानन्दाचार्य जी शांत और गंभीर हो गये, तब कबीरदास ने गंगाघाट की पूरी घटना बतायी। यह सुनकर श्री रामानन्दाचार्य जी बहुत प्रसन्न हुये और कहा वत्स! तुम अपनी जगह ठीक हो। कबीरदास जी कपड़ा बुनते अपना काम करते लेकिन उनका राम-नाम का जप निरन्तर चलता रहता, प्रभु की छवि और गुरु के चरण उनके हृदय में विराजमान रहते। उसी समय महा पण्डित श्री पद्मनाभ जी महाराज विद्वत्ता में उभरे। उन्हें माँ सरस्वती का वरदान था कि तुम्हें कोई शास्त्रार्थ में पराजित नहीं कर पायेगा। इस वरदान के बाद उन्हें एक व्यसन हो गया कि बड़े-बड़े विद्वानों के पास जाते उनसे शास्त्रार्थ करते, जब वे शास्त्रार्थ में पराजित हो जाते तो उनसे विजय पत्र लिखवाते, उनकी सारी पुस्तकें गाड़ी बैल में लादते और अगले पंडित की खोज में चल देते।

श्री पद्मनाभ जी देश के कोने-कोने से पंडितों से विजय पत्र लिखवाते, काशी पहुँचे और वहाँ के विद्वानों को ललकारा कि यहाँ के विद्वान् मुझसे शास्त्रार्थ करें या पराजय स्वीकार कर विजय पत्र लिख कर दें।

काशी के विद्वान् उनकी ख्याति सुन चुके थे वे समझ गये कि ये अपने तप, सिद्धि का दुरुपयोग दूसरे को अपमानित करने में कर रहे हैं। वे भगवान् विश्वनाथ जी से प्रार्थना करने लगे कि प्रभो! लाज रखो। तभी आकाशवाणी हुयी कि विद्वज्जनों आप परेशान न हों, इसे केवल सिद्धि बल से ही पराजित किया जा सकता है। इसलिए इस महा पण्डित श्री पद्मनाथ को कबीरदास जी के पास भेजो। काशी के विद्वान् हर्षित हो गये उन्हें समाधान मिल गया। उन्होंने पंडित श्री पद्मनाभ से कहा कि महाराज! आप कबीदास जी के पास चलिए वे ही आपसे शास्त्रार्थ कर सकेंगे यदि वे हार गये तो हम आपको विजय पत्र दे देंगे।

श्री पद्मनाभ जी ने कहा कि यदि ऐसा है तो आप उन्हें यहाँ ले आइये। काशी के विद्वानों ने कहा कि महाराज! कबीरदास जी का तो न शास्त्रार्थ का उद्देश्य है और न विजय पत्र का। वे इसके लिए कहीं आते-जाते नहीं। यदि आपका उद्देश्य काशी से विजय पत्र पाने का है तो आप ही चलिये।

श्री पद्मनाभ जी तैयार हो गये, अब काशी के विद्वान उन्हें कबीरदास जी के पास लेकर पहुँचे कबीरदास जी ने कहा कि यदि शिव जी की आज्ञा है तो वे मुझे सामर्थ्य भी देंगे। सदैव ध्यान रखना चाहिए कि देवता या दिव्यात्मायें आदेश या अन्त: प्रेरणा ही नहीं देतीं वे सामर्थ्य भी देती हैं। समय पर शास्त्रार्थ की बैठक हुयी। दिग्विजय महा पंडित पद्मनाभ ने कहा कि आप हमसे पूछो क्योंकि हम तो सर्वज्ञ हैं चाहे जो पूछो।

श्री कबीरदास जी ने कहा कि महाराज हम तो-

‘मसि कागद छूयो नहीं कलम गही नहीं हाथ।’

मैं क्या जानू शास्त्र या शास्त्रार्थ। दूसरी बात कि मैं किसी प्रश्न या समस्या से ग्रस्त नहीं हूँ, मेरे सभी प्रश्न और जिज्ञासायें समाप्त होकर राम में विलीन हो गयी हैं। फिर भी आप कह रहे हो तो पूछ रहा हूँ-

समुझि पढ़े कि पढ़ि समुझि, अहो कहो कविराय।
सुनि यह बात कबीर की, पण्डित गयो हेराय।।

भ.मा.

महाराज! आपने समझ कर पढ़ा है कि पढ़कर समझा है कि तत्त्वज्ञान क्या है?

श्री कबीरदास जी राम-नाम की जप साधना और तप से सिद्ध हो चुके थे, उनकी वाणी प्रासादिक थी, जैसे ही श्री कबीरदास जी की वाणी उस महा पंडित के कान में पड़ी, उनके अन्तश्चक्षु खुल गये। वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये बोले महाराज! मैंने न तो समझकर पढ़ा, न पढ़कर ही समझा, अब आपके सानिध्य में आने से समझा कि जो पढ़ा उससे अहंकार अवश्य पैदा हुआ जिससे स्वयं संतप्त हुआ और वाद-विवादकर दूसरों को संतप्त करने लगा। न अत्मकल्याण कर सका और न दूसरों का।

श्री पद्मनाभ जी की ब्रह्म भक्ति जागृत हो गयी। बस, तुरन्त उन्होंने प्रण किया कि अब किसी से शास्त्रार्थ नहीं करूँगा।

श्री पद्मनाभ में योग्यता और पात्रता तो थी ही वह तो दिग्भ्रमित हो गये थे। तत्काल अहंकार का त्याग किया और कबीरदास जी की शरणागति ली। श्री कबीरदास जी ने उन्हें राम मंत्र की दीक्षा दे दी। अब तो श्री पद्मनाभ जी का जीवन ही बदल गया, निरन्तर राम-नाम जप और भगवान् की मन से सेवा करते।

भक्तमाल में एक और प्रसंग आता है कि काशी के एक सेठ को गलित असाध्य कुष्ठ हो गया, वह गंगा जी में डूबकर मरने का निश्चय कर गंगा जी की ओर भागता जा रहा था, इसके पीछे-पीछे अनेकों लोग भागते जा रहे थे। संयोगवश श्री पद्मनाभ जी उधर से निकले, भीड़ देखकर वे रुके और पूछा कि क्या बात है? लोगों ने सारी बात कह दी, श्री पद्मनाभ जी ने कहा कि उसे पकड़ो, उसे डूबने मत दो और उस सेठ से कहा कि जाओ गंगाजल में श्रद्धा से स्नान करो और स्नान करते समय तीन बार शरणागति भाव से श्री राम-नाम कहो, तुम्हारा रोग मिट जाएगा, उसने सचमुच ऐसा ही किया और धीरे-धीरे उसका शरीर नवीन हो गया फिर तो वह सेठ अपनी बुद्धि को स्थिर कर भक्तिभाव में तत्पर हो गया।

अब श्री पद्मनाभ जी गुरुदेव श्री कबीरदास जी के पास जाकर सारा वृत्तान्त बताया, तो उन्होंने कहा कि पद्मनाभ! तुम्हें अभी साधना की लगातार आवश्यकता है, तुम श्री नाम महाराज की महिमा नहीं जान पाये, तुमने इतने तुच्छ रोग के लिए ३ बार महामंत्र का उच्चारण कराया जबकि यह कार्य तो नाम के आभास से हो जाता।

श्री प्रियादास जी इस घटना का वर्णन अपने इस कवित्त में ऐसे करते हैं-

काशीबासी साहु भयो कोढ़ी सो निबाह कैसे
परि गये कृमि चल्यौ बूड़िबे को भी रहै।
निकसे पदम आय पूछी ढिग जाय
कही गही देह खोलौ गनु न्हाय गंगानी है।
राम-नाम कहै बेर तीन मैं नवीन होत
भयौई नवीन किसी भक्ति मति धीर है।
गयो गुरु पास तुम महिमा न जानी
अहो नाम भास काम करै कही यौं कबीर है।

३/११।।

कबीरदास जी अपनी पत्नी लोई माता नीमा, पुत्र कमाल और कमाली के साथ कर्मयोग, भक्तियोग से जीवन जीते हुए भगवान् की प्राप्ति तक पहुँचे। पूरी तरह से अपरिग्रही रहे, वे अभाव में भी साधु, संतों की सेवा, सूत कातना, कपड़ा बुनना और बाजार में बेचना उससे प्राप्त धन से अपने परिवार का निर्वाह करते रहे। यह उनकी शिक्षा थी कि गृहस्थ मार्ग से भी अच्छे से भगवद्प्राप्ति की जा सकती है। वे हमेशा कहते-

सांई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ और साधु न भूखा जाय।।

कबीरदास जी की साधना के दो ही तत्व थे, पहला ‘गुरु’ दूसरा ‘राम’। उन्होंने संसार को यह सन्देश दिया कि यदि मेरे सामने भगवान् और गुरु दोनों खड़े हों तो मैं सबसे पहले गुरु को प्रणाम करूँगा और उनकी पूजा करूँगा क्योंकि इनसे ही मुझे भगवद् प्राप्ति का मार्ग मिला।

बाह्य आडम्बर से दूर श्री कबीरदास जी निरन्तर कर्म करते हुए और वह कर्म भगवान् को समर्पित करते हुए, राम-नाम का आश्रय बनाकर ११९ साल तक इस धरा धाम में रहे और अंत में मगहर में अपने शरीर का त्याग किया।

इन दीर्घायु महापुरुषों की जीवनी से हमें यह भी ज्ञान मिलता है कि राम-नाम जप केवल आध्यात्मिकआ लाभ ही नहीं बल्कि दीर्घायुष्य और आरोग्य भी प्रदान करता है। यह बात वैज्ञानिक शोधों से भी प्रकाश में आ चुकी है कि भगवन्नाम जप सिद्धि से चिन्ता और तनाव से निवृत्ति होती है परिणामत: दीर्घायुष्य की प्राप्ति होती है।