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भिखारियों से सुख की चाह नहीं करनी चाहिए !!

एक दिन छिन्दवाड़ा (म.प्र.) के एक क्षत्रिय दम्पति अपने बेटे को ‘आयुष ग्राम गुरुकुलम्’ में पूर्व मध्यमा प्रथम वर्ष (कक्षा ९) में प्रवेश दिलाने हेतु आये। बेटे की माँ अर्थशास्त्र से पी.एच-डी. थीं। प्रवेश के बाद वे दम्पति हमसे मिलने आये। हमने पूछा कि आप इतनी दूर अपने बेटे को गुरुकुलम् में क्यों प्रवेश करा रहे हैं। माँ ने कहा कि हम नहीं चाहते कि बेटा ऐसा बने कि वह पढ़ाई-लिखाई के बाद विदेश चला जाय और वहीं विवाह करके घर बसा ले फिर मरते समय तक भी माता-पिता, भाई-बहन तक को देखने न आये।

आज सब की शिकायत है कि भाई-भाई को सुख नहीं दे रहा, बेटा, बहू अपने सास-ससुर की सेवा शुश्रूषा नहीं कर रहे। विवाह के पहले बेटा माता-पिता की भक्ति और अनुशासन की बड़ी-बड़ी डीगें मारता था, फिर वही बेटा विवाह के बाद एक दिन भी माँ-बाप के साथ बैठकर भोजन नहीं कर सका।

इस प्रकार माता-पिता, भाई या जितने भी रिश्ते हैं उनकी अपनों से केवल एक ही चाह है वह है सुख।

विचारणीय विषय है कि यहाँ जितने भी प्राणी हैं सभी की एक मात्र चाह है सुख की। कोई दु:ख चाहता है क्या? उत्तर मिलेगा बिल्कुल नहीं। विश्व के महान् प्राच्य चिकित्साचार्य चरक कहते हैं-

सुखार्था सर्वभूतानां मता: सर्वाप्रवृत्तय:।।

च.सू.२८/३५

अर्थात् सभी प्राणियों की सम्पूर्ण प्रवृत्ति केवल सुख की चाह के लिए होती है।

इस प्रकार जब शास्त्र स्पष्ट कहते हैं और दिखता भी यही है कि प्रत्येक प्राणी सुख का भिखारी है तो फिर आप उस भिखारी से सुख की आशा कैसे कर सकते हैं, यह कैसे चाह रख सकते हैं कि हमारा बेटा हमें सुख दे, हमारा पति/ पत्नी हमें सुख दे, हमारा भाई हमें सुख दे क्योंकि जिससे आप सुख की चाह रखते हैं वह स्वयं सुख का भिखारी है उसमें स्वयं ही सुख की लालसा, तृष्णा, स्पृहा बनी हुयी है, जब वह अभी स्वयं ही तृप्त नहीं हुआ, उसका भिखारीपन नहीं मिटा, वह स्वयं ही सुख की राशि नहीं बन पाया, दर-दर ठोकर खा रहा है तो वह आपको कैसे सुख दे देगा? ऐसे में यदि हम ऐसे व्यक्ति से सुख की अपेक्षा रखते हैं जो दु:खान्त अवस्था को नहीं प्राप्त हुआ, अतृप्त है, सुख और तृप्ति की चाह में भटक रहा है, असंतुष्ट है, बेचैन है तो यह हमारी घोर अज्ञानता है। अरे भाई! दे वही सकता है जो जिसके पास होगा। भगवान् गीता में ऐसे व्यक्ति का लक्षण बताते हैं-

अभ्यासाद्रमते यत्र दु:खान्तं च निगच्छति।
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विवकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।

१८/३६-३७

अर्थात् जो व्यक्ति भजन पूर्वक ध्यान, सेवा-शुश्रूषा के अभ्यास से भगवान् में रमण करता है और इससे दु:खान्त अवस्था को प्राप्त कर चुका है। दु:खान्त अवस्था को पाने के लिए जब वह भजन, ध्यान, सेवा-सुश्रूषा की ओर बढ़ता है तो आरम्भ में तो उसे यह विषपान की तरह कष्ट प्रतीत होता है पर वह उसका परिणाम अमृत के तुल्य या देवत्व तुल्य पाता है फिर तो वह इस परमात्म बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न सुख, सात्विक सुख से सराबोर रहता है।

इस सात्विक सुख से लबालब और दु:खान्त अवस्था का प्राप्त कर लेने वाला महामानव सुख का भिखारी नहीं रह जाता बल्कि सुख राशि हो जाता है, ऐसा अतिमानव ही सुख का दाता हो सकता है। क्योंकि उसमें भगवद् गुण आ जाते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि सुखराशि, सुखधाम और आनन्द सिन्धु भगवान् का स्वरूप है।

जो आनन्द सिंधु सुख रासी।
सीकर तें त्रैलोक सुपासी।।
सो सुखधाम राम अस नामा।
अखिल लोक दायक विश्रामा।।

रामचरित मानस १/१९६/३।।

किन्तु सांसारिक मानव जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध के पीछे दौड़ रहा है और इन विषयों से सम्बन्धित इन्द्रियों कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नाक के वशीभूत होकर इन्हें ही तृप्त कर रहा है और इनके संयोग से उत्पन्न सुख को अमृत सरीखा मानता है जिसका परिणाम अतृप्ति, लालसा, तृष्णा, अशांति, अविवेक, बेचैनी जैसा विष उत्पन्न करता है वह रजोगुणी, सुख में फॅंसा स्वयं महाभिखारी बना व्यक्ति किसी दूसरे की सुख की चाह की पूर्ति कैसे कर सकता है? कदापि नहीं। यही ज्ञान आत्मसात् कर मानव को आत्मानन्द की खोज में तत्पर होना चाहिए, उन्हें सच्चे सुख की तलाश में उस अतिमानव, सद्गुरु की सामीप्यता लेनी चाहिए जो परमात्म बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न सात्विक सुख की ओर हो उन्मुख हो, भजन सेवा और ध्यान में रमण कर दु:खान्त अवस्था पाने की ओर स्वयं अग्रसर हो।

जो मानव चाहे वह आपका जितना नजदीकी क्यों न हो यदि वह ऐसे सुख की चाह में लगा है जो (सुख) भोगकाल में और परिणाम में भी आत्मा का पतन कराने वाला है, ऐसा व्यक्ति व्यर्थ की चेष्टाओं अर्थात् प्रमाद, कर्तव्यहीनता, आलस्य, निद्रा में ही सुख लेता है वह तमोगुणी सुखभोक्ता है उससे तो कभी भी सुख की चाह करनी ही नहीं चाहिए।

गीता में भगवान् कहते हैं-

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मन:।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।

१८/३९।।

ऐसा व्यक्ति तो भिखारी से भी बदतर है, वह आत्मघाती है- जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा:।। (गीता १४/१८)।।

सदैव ध्यान रखना चाहिए कि सेवा वही कर सकता है जो अपने सुख को खुशी-खुशी, उत्साहपूर्वक तिलांजलि दे सके।

सेवक सुख चह मान भिखारी।।

रा.च.मा. ३/१६/८।।

यदि कोई ऐसा सामर्थ्य पाना चाहता है कि वह सुखदाता बने, दु:खान्त अवस्था को प्राप्त करे और सुख राशि बने तो उसे सद्गुरु द्वारा प्रदत्त मार्ग का अवलम्बन कर भजन, ध्यान, सेवा का अच्छा अभ्यास करना चाहिए। सात्विक आहार, सात्विक शास्त्र, सात्विक चिन्तन, सात्विक संगति की ओर बढ़ना चाहिए। इससे धीरे-धीरे किल्विष मिटने लगता है उसका भिखारीपन हटने लगता है और वह निश्चित् रूप से सुख दाता की श्रेणी पाने लगता है। आचार्य चरक से पूछा गया कि सभी प्रकार के सुखों में क्या श्रेष्ठ है तो उन्होंने कहा- सर्व सन्यास: सुखानाम् श्रेष्ठम्।। २७/४०।। अर्थात् सभी प्रकार के कर्म फल का त्याग करना ही सुखों में श्रेष्ठ सुख है।