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रुकिये, समझिये! यदि आप योग करने, कराने जा रहे हैं!!

२१ जून को विश्व योग दिवस मनाया ही जाएगा। हमारे देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रयास और इस आर्यावर्त के प्राचीन और अर्वाचीन योगियों के योगमय प्रसाद से अब भारतीय योग को विश्व में मान्यता मिली।

आपको जानकर अब तो और गर्व होगा कि पाकिस्तान ने भी योग कक्षाओं की आधिकारिक शुरुआत कर दी है। समाचारों में बताया गया कि भले ही पाकिस्तान अपने पड़ोसी भारत को नकारता रहा हो किन्तु दुनिया में प्रसिद्धि पा चुके भारतीय योग जो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक चेतना प्रदान करता है उसे स्वीकारना ही पड़ा। यह है हमारे भारतीय विधाओं का महत्व।

आचार्य चरक ने भी योग को रोग के बचाव का साधन बताया है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस प्राच्य चिकित्सा वैज्ञानिक ने ‘तत्परता च योगे’ वाक्य को शारीर स्थान में उल्लेख किया है।

निश्चित् रूप से योग की स्वीकारता बढ़ी पर उसका मनमाना और अशास्त्रीय ढंग के प्रयोग से हानियाँ भी देखने को मिल रही हैं इसलिए योग सीखने और सिखाने वालों तथा करने और करवाने वालों को इस पर गम्भीर होना चाहिए।

कुछ वर्षों पूर्व हमारे यहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक अधिकारी किडनी फेल्योर से ग्रस्त होकर चिकित्सा हेतु भर्ती हुए, हालत बड़ी खराब थी।

वे और उनके साथी भी बताते थे कि ये भाई साहब सूर्य नमस्कार आदि योग क्रियायें नियमित करते रहे फिर भी गंभीर रोग से ग्रस्त हो गये?

अनेकों लोग आज भी हमें चिकित्सा में मिलते हैं जो कहते हैं कि हम बहुत अच्छे से योग करते हैं तब भी रोगी हो गये।

हमने अनेकों साधुओं को भी देखा जिन्हें योगासन का अभ्यास तो अच्छा है पर हमेशा रोगी रहते हैं, कोई न कोई दवा ढूँढ़ते हैं, ऐसा क्यों? तो इसका समाधान योगेश्वर भगवान् कृष्ण श्रीमद्भगवद् गीता में करते हैं-

य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।

१६/२३।।

अर्थात् जो शास्त्र की विधि को त्याग कर मनमाने ढंग से (किसी क्षेत्र में) आचरण करता है वह न तो सफलता को प्राप्त कर पाता है न परम गति को और न सुख को।

आगे भगवान् कहते हैं कि अर्जुन! क्या करें क्या न करें इस पर जब अंतर्द्वन्द्व चल रहा हो और मार्ग तय न हो पा रहा हो तो शास्त्र को प्रमाण मानकर शास्त्रीय विधान के अनुसार कर्म करो, इससे सफलता ही मिलेगी अन्यथा हानि होगी।

महर्षि पतंजलि ने प्रथम योग शास्त्र की रचना की जिसका नाम है पातञ्जल योग दर्शन। उसमें योग की सरल परिभाषा बतायी है कि जिससे चित्त वृत्तियों की चंचलता मिट सके उसका नाम योग है (पा.यो.द. १/२)।

सच में योग में इतनी सामर्थ्य है कि वह परमात्मा से विलग हुए इस जीवात्मा को परमात्मा में विलीन कर देता है इसी का नाम परम सुख या मोक्ष है।

सभी प्रकार की वेदनाओं की निवृत्ति कराने का सामर्थ्य केवल मोक्ष में है और मोक्ष का प्रवर्तन योग द्वारा ही संभव है। (च.शा. १/१३७)

योगेश्वर भगवान् कृष्ण कहते हैं कि योग का वास्तविक लक्ष्य है दु:ख संयोग से वियोग करा देना। (गीता ६/२३) अर्थात् वेदना से सर्वथा मुक्त करा देना।

सदैव ध्यान रखना चाहिए कि योग ऐसा विज्ञान नहीं है जो परोक्ष में परिणाम दायक हो या संभावनाओं पर आधारित या अगले जन्म में ही शुभ फल की बात करता हो बल्कि योग ऐसा विज्ञान है कि इसी जन्म में ही दु:ख की निवृत्ति, संतोष, सुख, शान्ति, उन्नति जैसे सुपरिणाम देता है। जब हम इसे समझ लें और आत्मसात कर लें। भगवान् कहते हैं-

इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिता:।।

गीता ५/१९।।

शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीर विमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर:।।

गीता ५/२३।।

जिसने मन को ‘समत्व’ में स्थित कर लिया है उसने जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार को जीत लिया है क्योंकि परमात्मा दोष रहित और सम है ऐसा व्यक्ति परमात्मा में ही स्थित हो जाता है।

अपना कार्य करते हुए भी जो व्यक्ति साधना मार्ग में चलते-चलते इस शरीर के छूटने के पहले ही कामना, क्रोध आदि मनोविकारों की मार से विचलित न होने की क्षमता अर्जित कर लेता है, वही तो योगी है और सुखी है।

अब विचार करें कि कितना सरल, सहज है योगकर्म और कितना सुखद है परिणाम।

लेकिन अब दूसरे पक्ष पर भी विचार किया जाय कि इस समय योग तो जगह-जगह हो रहा है पर तब भी व्यक्ति बेचैन, अशांत और रोगी दिख रहा है।

सच तो यह है कि योग के नाम पर जो आज अधिसंख्य दिख रहा है वह योग नहीं आसन है, योगासन है, प्राणायाम है, मुद्रायें हैं और भी कुछ हैं और उसमें भी नियमों की अनदेखी फिर कैसे उसका प्रभाव दिखे या लाभ मिले।

इसलिए इस पर विस्तार पूर्वक चर्चा करना आवश्यक हो गया कि चूक कहाँ हो रही है, जिससे कि योग का सम्यक् लाभ तो दूर पर हानि हो रही है।

योग की मुख्यत: दो धारायें हैं प्रथम हठयोग दूसरा राजयोग। प्रथम धारा हठयोग का उद्देश्य है कि शरीर को आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने योग्य या सक्षम बनाना।

सर्वाण्यापि हठाभ्यासे राजयोग फलावधि।

(ह.यो.प्र. १/६९)

पतञ्जलि के योग अर्थात् राजयोग पर चढ़ने के पूर्व हठयोग का पूर्वाभ्यास अवश्यक है। ‘ह’ को सूर्य तथा ‘ठ’ को चन्द्र के अर्थ में लिया गया है। सूर्य का तात्पर्य प्राणवायु से और चन्द्र का तात्पर्य अपानवायु से है तथा दोनों का प्राणायाम से निरोध करना ही हठयोग है।

वैदिक चिकित्सा विज्ञान आयुर्वेद का भी यही कहना है कि प्राण और अपानवायु को अवरोध रहित, संतुलित तथा अपने स्थान में स्थित रखकर ही दीर्घायु एवं स्वस्थ जीवन पाया जा सकता है। (च.चि.२८)।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी अब इसी अवधारणा को मान चुका है कि यदि रोगी में वायु (गैस) बढ़ेगी तो वह अपने को स्वस्थ नहीं महसूस करेगा तभी तो अब हर पर्चे में PAN-४० या रेवेप्राजोल सोडियम + डोम्परिडोन जैसी दवायें धुआँधार लिखी जा रही हैं ताकि गैस, एसिड को दबाया जा सके।

यद्यपि ये दवायें किडनी की समस्या दे सकती है फिर भी डॉक्टर लिख रहे हैं और हम अज्ञानतावश खा रहे हैं जब किडनी फेल्योर हो जाती है तब कहते हैं कि यह कैसे हो गया हमने तो ऐसा कुछ किया नहीं?

आईसीएमआर जैसी वैज्ञानिक संस्था भी पिछले माह डॉक्टरों द्वारा की जा रही इस घोर लापरवाही को सार्वजनिक कर चुकी है।

हठयोग में स्पष्ट बताया गया है कि पहले नौलि, धौति, बस्ति, नेति, कपालभाति और त्राटक इन षट्कर्मों के द्वारा शरीर का शोधन करना चाहिए ये क्रियायें मेद और कफ की अधिकता को हटाती हैं। जिन साधकों में शारीरिक दोष और धातु ‘सम’ (संतुलित) हों उनके लिए षट्कर्म आवश्यक नहीं है। इन षट्कर्म कराने में भी सावधानी की आवश्यकता होती है जैसे उर:क्षत, हृद्दौर्बल्य, वमन, स्वरभेद, मनोविभ्रम, ज्वर, अनिद्रा, रक्तपित्त, अम्लपित्त इन रोगों तथा वर्षा ऋतु में कपाल भाति तथा मस्तिष्क दौर्बल्य, नेत्रदाह, नासिका दाह, बाह्य और मध्य त्राटक निषेध माना है।

शरीर का शोधन करने से ऊर्जा का संचार होता है, जब शरीर सुनियंत्रित, सुसंगठित, ऊर्जस्वल होता है तब पतंजलि द्वारा निर्दिष्ट राजयोग में प्रवेश करना चाहिए। राजयोग में ऐसी आध्यात्मिक उर्वरा है जो प्रत्येक मानव के अंत:करण में विराजमान ज्ञानवृक्ष के मूल को अपनी उच्च प्रसादपूर्ण उर्जस्विता से ओत-प्रोत करता है। शारीरिक स्वास्थ्य संतुलन की पद्धति हठयोग है और मानसिक उत्थान, संतुलन की पद्धति राजयोग है। राजयोगी मन पर अधिकार कर लेता है और मन पर अधिकार हो जाना ही सर्वस्व की प्राप्ति है तथा मन की दासता ही सर्वस्व पतन है।

जब हम योगसिद्धि के मार्ग में चलते हैं तो उसमें १३ बाधायें या विक्षेप आते हैं- १. व्याधि २. स्त्यान ३. संशय ४. प्रमाद ५. आलस्य ६. अविरति ७. अलब्ध भूमिकल्प ८. अनवस्थितत्व ९. दु:ख १०. दौर्मनस्य ११. भ्रान्तिदर्शन १२. अंगमेजयत्व १३. श्वास-प्रश्वास।

इन प्रतिबन्धक विघ्नों पर विजय प्राप्त करने और चित्त की प्रसन्नता के लिए ४ उपाय बताये गये हैं-

१. मैत्री- प्रत्येक व्यक्ति के साथ द्वेष और स्वार्थ रहित होकर अपनापन स्थापित करना।
२. करुणा- पीड़ित दु:खित मानव की पीड़ा का निवारण करना।
३. मुदिता- किसी की उन्नति, अच्छे कार्य को देखकर प्रसन्न होना भले ही वह विरोधी ही क्यों न हो।
४. उपेक्षा- दूषित लोगों, पापियों और गलत कार्य करने वालों के प्रति उपेक्षा का भाव रखना।


इन गुणों को अपनाने और बढ़ाने से योग सिद्धि में आने वाले सारे विघ्न दूर होते जाते हैं और योगसिद्धि प्राप्त होती है।

योगसिद्धि के लिए सुपात्र, सुयोग्य, उत्साही, उदार, सही खान-पान, जीवनशैली का पालन करने वाला शिष्य होना तथा श्रेष्ठ गुरु की खोज करना आवश्यक है। क्योंकि गुरु (आचार्य) का स्थान माता-पिता से भी उच्च होता है। गुरु (आचार्य) हमेशा अपने साधक शिष्य को इस सांसारिक चकाचौंध से ऊपर उठाकर परमात्मा की दिव्य ज्योति का दर्शन करने के लिए अभिप्रेरित करता है वह शिष्य को शिष्टाचार और ज्ञानार्जन का मार्ग देता है।

योगाभ्यास का श्रेष्ठ परिणाम तभी आता है जब साधक का अभ्यास निरन्तर और निर्बाध चलता रहे। वासना और सांसारिक विषयों का परित्याग कर गुरुसेवा पूर्वक शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और आत्मा के संयुक्त प्रयत्न से व्यक्ति अपने को परमात्मा की खोज में लगा सकता है।

ध्यान रखें कि चित्तवृत्तियाँ बहुत चंचल और प्रवाहित हैं, उनके प्रवाह को रोकने के लिए पातञ्जल योग दर्शन १/२७ में ‘‘अभ्यासवैरागाभ्यां तन्निरोध:’’।। कहा गया है अर्थात् अभ्यास और वैराग्य दो ऐसे साधन हैं जो कि चित्तवृत्तियों की चंचलता के प्रवाह को मिटा देते हैं।

पातञ्जल योग दर्शन २/२९ में योग के आठ अंग एक क्रम से बताये हैं-

‘‘यमनियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार ध्यान धारणा समाध्योऽष्टावङ्गानि।।’’

अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि।

यम- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये यम हैं। किसी को भी मन, वाणी, कर्म से सताना न हो, तभी अहिंसाव्रत पूर्ण हो सकता है। कोई ऐसा कार्य न हो जाय जिससे किसी को पीड़ा हो जाये। मन, वाणी, कर्म से सत्य का आश्रय लिए रहना, जीवन खुली पुस्तक जैसा हो। अपनी इन्द्रियों को काबू में रखना, मन, वाणी कर्म से व्यर्थ में वीर्यपात या चाञ्चल्य, उत्तेजना न होने पाये इसका ध्यान रहे। गृहस्थ हैं तो भी केवल ऋतुभिलाषी हों, संतानोत्पत्ति का उद्देश्य हो, व्यर्थ की संचय प्रवृत्ति, लोभप्रवृत्ति या अपनी इन्द्रिय सुख के लिए साधनों का संचय या उपयोग न करें। संचय हो तो लोकहित के लिए अपने लोककर्म में लगे रहने पर शरीर रक्षा के साधन के रूप में हो ये ‘यम’ कहलाते हैं।

नियम- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान ये नियम कहलाते हैं। शरीर की भीतरी और बाहरी शुद्धता का नाम शौच है। न्याय पूर्वक अर्जित धन से आहार और जीवन यापन की व्यवस्था रखना, शुद्ध शाकाहार सात्विक आहार से मन और शरीर दोनों पवित्र रहते हैं। मिट्टी, जल आदि से शरीर की बाहरी पवित्रता तथा सद्चिन्तन, सद्विचार, सत्संगति भगवान् की आराधना तथा समाज की निष्काम सेवा तथा निष्कामभाव से सभी प्राणियों के प्रेम से मन पवित्र होता है।

जो प्राप्त है उसमें संतुष्टि रखना, संतोष से शांति और सुख प्राप्त होता है। सदैव ध्यान रखना चाहिए कि असंतोष दरिद्रता का सूचक है। तप से जीवन की ज्योति और आभा प्रकट होती है। ‘कायेन्द्रियशुद्धिरशुद्धिक्षयात्तपस:’ (पा.यो.द. २/४३)।

भगवान् ने जो कार्य हमें दिया है उसका अच्छे से निर्वाह और जीवन का वास्तविक उद्देश्य समझकर सही दिशा में चलना फिर इस मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का सहन करने का नाम तप है। यह तप तीन प्रकार का है शारीरिक, मानसिक और वाचिक। दिव्यात्मा, गुरु, विप्र, तपस्वियों का सम्मान, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह शारीरिक तप है। किसी को पीड़ा पहुँचाने वाली बात न करना, प्रिय, हितकर और यथार्थ भाषण करना, स्वाध्याय तथा ईश्वर नाम जप यह वाणी का तप है, मानसिक प्रसन्नता, शांति, मौनव्रत, भीतरी पवित्रता, मन का वश में रखना यह मानसिक तप है। (गीता १७)

यह निश्चित् समझें कि तप से शरीर, मन, बुद्धि पवित्र होती है और चारित्रिक शुद्धता आती है। ऐसे शास्त्र या साहित्य का अध्ययन करना जिससे कर्तव्य अकर्तव्य का ज्ञान हो, विवेक जागृत हो। स्वाध्याय से मानसिक स्वास्थ्य, शांति और प्रसन्नता प्राप्त होती है। अष्टांग योग के नियम में ईश्वरप्रणिधान को रखा गया है।

भगवान् के नाम, रूप, लीला, धाम, गुण और प्रभाव का श्रवण, कीर्तन, मनन और ध्यान करना, समस्त कर्मों को भगवान् को समर्पित कर देना, हम अपने को भगवान् का यंत्र माने और भगवान् को यंत्री, यह वृत्ति ईश्वर प्रणिधान है, इसके बिना योग सिद्धि नहीं हो सकती।

जो अनिवार्य है, इसके बिना योगसिद्धि नहीं होती। भगवान् और गुरु की शरणागति से सांसारिक विघ्न बाधायें दूर होकर मन समाधिस्थ होने लगता है। यम-नियम के बाद ही आसन का क्रम आता है ‘स्थिरसुखमासनम्।’ (पा.यो.द. २/४६) निश्चल और सुख पूर्वक बैठने का नाम आसन है, इसका अभ्यास करना चाहिए।

स्थिर और सुखकर स्थिति मानसिक संतुलन लाती है और मन की चंचलता दूर करती है। (पा.यो.द. २/४७)।

आसन शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत ही उपयोगी है, ये रक्तचाप, हृदयरोग, गलगण्ड, तमकश्वास, मधुमेह, कटिशूल, गृध्रसी आदि रोगों में भी प्रभाव रखते हैं पर इन्हें विशेषज्ञ की देख-रेख में करना और सीखना चाहिए।

इसके बाद चौथे क्रम में प्राणायाम का क्रम है। पतंजलि कहते हैं कि

‘‘प्राणवायु का शरीर में प्रविष्ट होना श्वास है और बाहर निकलना प्रश्वास है, इन दोनों की गति का विच्छेद हो जाना अर्थात् रुक जाना प्राणायाम का सामान्य लक्षण है। प्राणायाम में पूरक, कुम्भक, रेचक का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है, श्वेताश्वतरोपनिषद् में शंकरभाष्य में स्पष्ट बताया गया है कि प्रथमं नाड़ी शोधन कर्तव्यम, तत: प्राणायामेऽधिकार: पहले नाड़ी शोधन करें फिर प्राणायाम में अधिकार बनता है।

अतिभुक्तमभुक्तम च वर्जयित्वा प्रयत्नत:।
नाड़ी संशोधनं कुर्यादुक्तमार्गेण यत्नत:।।

अर्थात् अति भोजन और अभोजन की आदत को हर हाल में त्याग कर शास्त्रोक्त पद्धति से नाड़ी शोधन करें।

श्वेताश्वतोपनिषद् के शंकरभाष्य (८) में बताया गया है कि शुद्धि की पहचान नाड़ी है शरीर में हल्कापन आना एक अलग कांति, जठराग्नि की सम्यकता, नाद का सुनायी देना ये लक्षण आ जायें तो समझो कि नाड़ी शुद्धि हो गयी और हम प्राणायाम के अधिकारी हो गये।

हठयोग प्रदीपिका और घेरण्ड संहिता में प्राणायाम के कुछ नियम बताये गये हैं जिन्हें समझकर दृढ़ता से पालन करना चाहिए अन्यथा लाभ की जगह हानि झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए।

अथासने दृढे योग वशी हितमिताशन:।
गुरूपदिष्टमार्गेण प्राणायामान् समभ्यसेत्।।
अभ्यासकाले प्रथमे शस्तं क्षीराज्यभोजनम्।
ततोऽभ्यासे दृढीभूते न तादृक नियम संग्रह:।।

(ह.प्र.द्वि.उ. १ एवं १४)

ध्यान रहे प्राणायाम करने का स्थान साफ सुथरा, हवादार व शांत हो। केमिकल की गन्ध न हो, उस स्थान को प्राकृतिक धूप, गुग्गुल आदि से स्वच्छ कर लेना चाहिए। सिद्धासन या सुखासन में बैठकर रीढ़ और ग्रीवा सीधा रखें। प्राणायाम अभ्यासी का भोजन हितकर और संतुलित हो, मात्राधिक्यता न हो। गुरु द्वारा प्राणायाम मार्ग उपदिष्ट हो। प्राणायाम की साधना करने वाला सात्विक, पौष्टिक, गोघृत, गोदुग्ध, फलों को भोजन में अवश्य शामिल करें। कड़वे, तीखे, चटपटे, रूखे, उत्तेजक, गरिष्ठ असात्विक आहार का सेवन न करें।

जिसका आहार संयमित, सुपाच्य, सात्विक और संतुलित नहीं है और वह प्राणायाम की साधना करता है तो प्राणायाम उसे रोगी बनाये रखता है और मारक रोग तक उत्पन्न कर देता है। घेरण्ड संहिता में भी प्राणायाम के अभ्यासी के लिए गोदुग्ध, गोघृत युक्त संतुलित और भूख से कम भोजन का निर्देश है।

यदि प्राणायाम करने वाला मनमाना आहाराचरण करेगा तो निश्चित रूप से मोटापा, ब्लडप्रेशर, पेट के रोग, यकृत रोग, जोड़ों के दर्द, मूत्र रोग, स्मृतिभृंश और न जाने किन-किन रोगों से घिरा रहता है।

योग को दु:ख, पीड़ा, वेदना नाशक बनाना, उचित जीवनशैली और खान-पान के बिना संभव ही नहीं है। भगवान् का स्पष्ट निर्देश है-

‘‘जो व्यक्ति उचित खान-पान, जीवनशैली का पालन करता है, मन, वाणी और शरीर से संतुलित कर्म करता है, शयन और जागरण के नियमों में संतुलन रखता है। ऐसे साधक के लिए योग वेदनानाशक बनता है। इससे इतर आचरण करने और योग का आश्रय लेने से योग दु:खद हो जाता है।’’

प्राणायाम का अभ्यास धीरे-धीरे और नियमित रूप से करना चाहिए। शीघ्रता और जल्दबाजी नहीं की जानी चाहिए।

इसके बाद क्रम प्रत्याहार का आता है-

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो यत् प्रत्याहरणं स्फुटम्।
योगी कुम्भकमास्थाय प्रत्याहार: स उच्यते।।

(योगतत्त्व-६८)

प्रत्याहार से तात्पर्य मनोनिरोध पूर्वक इन्द्रिय निग्रह है। इच्छायें वशीभूत होने लगें तो मन पवित्र निर्मल हो जाता है। सांसारिक विषयों से निर्लिप्तता हो जाती है।

प्रत्याहार के बाद धारणा की स्थिति बनती है पतंजलि कहते हैं-

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा (पा.यो.द. ३/१)

शरीर के भीतर बाहर किसी एक स्थान में मन को ठहराने का नाम धारणा है। वह स्थान आकाश, सूर्य, चन्द्र, मूर्ति, मंत्र, हृदय, नाभि, भगवान्, गुरुचरण हो सकते हैं। यद्यपि मन की चंचलता को रोकना एक कठिन प्रक्रिया है, पर मन जैसे-जैसे सतोगुण की ओर बढ़ता जाता है रजोगुण से मुक्त होता जाता है वह चंचलता को छोड़ता जाता है। धारणा से यह स्थिति बन जाती है। अनेकों साधक मन को ठहराने का अभ्यास करते हुए ‘मंत्र या नाम जप’ से यह स्थिति पा लेते हैं।

अष्टांग योग में सातवें क्रम में ध्यान का क्रम है। ध्यान वह अवस्था है जहाँ मन पूर्ण स्थरीकरण को पा जाता है। इसके बाद समाधि का क्रम है तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:। (पा.यो.द. ३/३) मन का आत्मा के साथ एकाकार होना समाधि है। जब साधक की किसी ध्येय अर्थात् मंत्र, मूर्ति, अंग में धारणा, ध्यान और समाधि ये तीनों अवस्थायें हो जाती हैं तो उसे संयम कहा जाता है। (त्रयमेकत्रसंयम:। पा.यो.द. ३/५)।

संयम करते-करते साधक, चित्त में ऐसी योग्यता पा जाता है कि वह जिस विषय से संयम करना चाहे उसी से तत्काल संयम हो जाता है, उस समय योगी के बुद्धि को प्रकाश प्राप्त होता है, उसमें अलौकिक ज्ञानशक्ति आ जाती है इसी का नाम अध्यात्मप्रसाद और ऋतम्भरा प्रज्ञा कहा जाता है।

अब योगी में वह सामथ्र्य आ जाता है कि आठ प्रकार के बल उसके हाथ में आ जाते हैं, चरक कहते हैं-

आवेशश्चेतसो ज्ञानमर्थानां छन्दत: क्रिया।
दृष्टि: श्रोत्रं स्मृति: कान्तिरिष्टतश्चाप्यदर्शनम्।।
इत्यष्टविधमाख्यातं योगिनां बलमैश्वरम्।
शुद्धसत्वसमाधानात् तत् सर्वमुपजायते।।

च.शा. १/१४०-१४१।।

अर्थात् अपने चित्त को दूसरे पुरुष में आवेश (प्रवेश) करने को शक्ति, सभी प्रकार के विषयों को जान लेने को शक्ति, किसी भी कार्य में स्वच्छन्द होकर कार्य करने की क्षमता, दृष्टि की विशेष शक्ति, श्रवण की विशेष शक्ति, स्मृति की विशेष शक्ति, अलौकिक कान्ति वाला होना, अपनी इच्छा से लुप्त अथवा प्रकट होने की शक्ति, इस प्रकार योनियों में होने वाले बल के आठ भेद होते हैं। ये आठ प्रकार की शक्तियाँ शुद्ध सत्व (रजस, तमस गुणों से रहित) मन के समाधान (एकाग्र) से होती है।

उक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो गया न कि योग में ही अद्वितीय सामर्थ्य है दु:खनिवृत्ति का। पर वर्तमान में योग करने, कराने वाले तो बहुत देखे जा रहे हैं पर वह स्थिति बन नहीं पा रही है।

योग के नाम पर केवल कुछ आसन? शरीर को तोड़ना, मरोड़ना आदि कराया जा रहा है। यदि आसन ही सीखना-सिखाना है तो उसका क्रम, यम, नियम के बाद है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और लोभ राहित्यता (अपरिग्रह) को अच्छे से धारण करने के बाद, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान पश्चात् आसन।

जब तक ये आचरण नहीं लाये जाते ईश्वर का नाम रूप, लीला, धाम, गुण आदि द्वारा ईश्वर प्रणिधान (भक्ति) प्राप्त नहीं हो जाती है तो ‘आसन’ सिद्धि नहीं होती और उसमें प्रवेश कराना ही अनर्थकारी होता है ऐसे व्यक्ति को ‘योग’ का लाभ प्राप्त न होकर उसमें यह अहंकार अवश्य आ जाता है कि मैं आसन कर लेता हूँ या योगी हो गया आदि, जिसका परिणाम सुखद नहीं होता है।

आहार-विहार, ब्रह्मचर्य आदि नियमों का आश्रय लिए बिना और यम, नियम, आसन, सिद्धि के बिना तथा नाड़ी शोधन के बिना आज हजारों लोगों को प्राणायाम के अथाह क्षीरसिन्धु में फेंका जा रहा है जिसके सुपरिणाम कम दुष्परिणाम अवश्य सामने आ रहे हैं।

इसलिए इस शास्त्रीय विश्लेषण के आधार पर हमने इस लेख के द्वारा वास्तविक स्थिति जन मानस के समक्ष प्रस्तुत किया, आप इसकी गंभीरता और वैज्ञानिकता को समझकर, इसे आत्मसात् करके ही योग मार्ग में प्रवृत्त कर अपनी साधना को सफल करेंगे।