Image

वैदिक चिकित्सा से सहज रोगमुक्ति - रोग के सही पहचान से ही सही चिकित्सा !!

चरक संहिता के सूत्र स्थान २०वें अध्याय के २१वें सूत्र में एक महत्वपूर्ण बात कही गयी है-

यस्तु रोगमविज्ञाय कर्माण्यारभते भिषक्।
अप्यौषधविधानज्ञस्तस्य सिद्धिर्यद्धच्छया।।

अर्थात् जो चिकित्सक रोग की गहराई तक न पहुँचकर चिकित्सा प्रारम्भ कर देता है तो भले ही वह औषधि विधान का ज्ञानी है उसे सफलता यदि मिल भी जाती है तो उसे संयोगमात्र कहा जाय।

एक परिवार में विधवा नन्द रहती थी, उस घर की भाभी और नन्द में वैचारिक मन मुटाव बढ़ने लगा और यह मन मुटाव बढ़ते-बढ़ते चरम सीमा तक पहुँच गया।

भाभी अत्यन्त संवेदनशील, वह बीमार रहने लगी, शरीर टूट गया। अनेकों भौतिक जाँचें हुयीं जिसमें रक्त परीक्षण लगभग सामान्य था किन्तु अल्ट्रासाउण्ड कराने पर गर्भाशय में छोटी-छोटी दो गाँठें आयीं। वह उन्हीं गाँठों को लेकर चिंतित रहने लगी।

उन्हें चिकित्सा हेतु ‘आयुष ग्राम’ में लाया गया तो हमने पूरी स्थिति समझी और केवल मन को मजबूत करने की चिकित्सा लिखी तथा उसके पति को सलाह दी कि उसे कुछ दिन माता-पिता के पास भेज दें।

रुग्णा को हमने आहार व्यवस्था, पंचकर्म में शिरोधारा बस्ति, कटि बस्ति,दवाइयाँ, प्राणायाम, खुली हवा में भ्रमण, फल, सब्जियों का अधिक सेवन और सुबह-शाम १-२ घण्टे तक जप, ध्यान के लिए कहा, पाचन संस्थान को अनुकूल करने, वायु अनुलोम और मन-मस्तिष्क के लिए हितकर दवाइयाँ दी गयीं।

उस युवती का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य २ माह बाद तेजी से सुधरने लगा और ६ माह में बदल गया। इसलिए रोगी की चिकित्सा सदैव उसी चिकित्सक से कराना चाहिए जो शरीर के साथ रोगी के मन को भी समझ सके।

आचार्य चरक ने निदान स्थान में बहुत सुन्दर निर्देश दिया है-

वृद्धिस्थानक्षयावस्थां दोषणामुपलक्षयेत्।
सुसूक्ष्माममपि च प्राज्ञो देहाग्निबल चेतसाम्।।
व्याध्यावस्थाविशेषान् हि ज्ञात्वा ज्ञात्वा विचक्षण:।
तस्यां तस्यामवस्थायां चतु: श्रेय: प्रपद्यते।।
च.नि. ८/३६-३७।।

अर्थात् योग्य चिकित्सक, रोगकारक दोषों की वृद्धि, दोषों का अपने स्थान में समत्व और क्षय इन तीनों अवस्थाओं को समझता है, इसी तरह वह रोगी की शारीरिक अवस्था, अग्निबल और उसके मन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म दशा का ज्ञान करे। जो चिकित्सक रोग की विभिन्न अवस्थाओं को जानता है ऐसा चिकित्सक उन-उन अवस्थाओं में समुचित चिकित्सा (औषधि) प्रयोग करके रोगी को आरोग्य प्रदान कर सकता है, ऐसा चिकित्सक रोगी को तो लाभ प्रदान करता ही है पर चिकित्सक को उसका फल यह मिलता है कि चिकित्सक स्वयं कर्त्तव्यपरायण, अर्थसम्पन्न, सुख-सुविधा युक्त और आध्यात्मिक कहलाने लगता है।

आचार्य चरक के इस सूत्र को आत्मसात् कर यदि आज के चिकित्सक अपनी योग्यता, क्षमता, बुद्धि कौशल बढ़ाये तो समझ लीजिए भारत की जनता का और चिकित्सक के समूह का कायाकल्प हो जाएगा। क्योंकि इस विधि से जब चिकित्सा होगी तो रोगियों की संख्या बढ़ने में गिरावट आएगी, मानव स्वास्थ्य सम्पदा का धनी होगा तन और मन से समृद्ध होगा, ऐसे मानवों से युक्त धरती हमेशा खिली-खिली रहेगी।

किन्तु दुर्भाग्य है कि सैकड़ों वर्ष की लम्बी गुलामी पाकर भारत ने ऐसे चिकित्सकों को खो दिया और खो ही नहीं दिया, ऐसे डॉक्टर तैयार ही नहीं हो रहे जो रोगी के बारे में इतना गंभीर चिन्तन कर औषधि और चिकित्सा करें, यह अवश्य हो रहा है जैसा कि भण्डाफोड़ में आई एमसीआर ने खुलासा कर दिया कि एम्स, पीजीआई अनेकों सरकारी मेडिकल कॉलेजों के डॉक्टर तक गलत और अधूरा पर्चा लिख रहे हैं, रोगियों के जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं जिस पर इसी अंक के पेज १६ में सप्रमाण लेख लिखा गया है।

डॉ. विकास दिव्यकीर्ति आईएएस कहते हैं कि मधुमेह रोग का कारण केवल गलत खान-पान ही नहीं है बल्कि स्ट्रेस से भी मधुमेह होता है जो आयुर्वेदीय सिद्धान्त से शत-प्रतिशत सत्य है। मधुमेह की चिकित्सा करते समय ‘आयुष ग्राम’ चित्रकूट में इस पर भी ध्यान रखते हुए मधुमेहियों की चिकित्सा की जाती है परिणामत: और अनेकों मधुमेह रोगी समूल रोग निवृत्त होते हैं।

२३ अप्रैल २०२४ को ‘आयुष ग्राम’ में भानगढ़ (सागर) म.प्र. से ८४ वर्ष के चिकित्सक डॉ. जय कुमार जैन आये। राजस्थान से सेवानिवृत्त और कई पुरस्कारों से सम्मानित।

एक साल से पेशाब कई-कई बार जाना, नींद बिल्कुल न आना, कमजोरी, हाई ब्लडप्रेशर की दवायें भी खाते रहे। अपनी चिकित्सा के लिए वे मथुरा, जबलपुर आदि जगहों पर दिखाया। लाभ के स्थान पर हानि होती रही।

आयुर्वेद में भी दिखाया तो किसी ने प्रोस्टेट की तो किसी ने शीतप्रभा और एक चिकित्सक ने बहुमूत्रान्तक रस दे दिया। इससे उन्हें चक्कर आने लगे।

तब वे अपने बेटे के साथ ‘आयुष ग्राम’ आ गये, ‘आयुष ग्राम’ में जब शास्त्रीय विधि से निदान किया गया तो स्पष्ट हुआ कि वृद्धावस्था के कारण शरीर के धारक व पोषक तत्वों का क्षय इसलिए वात प्रकोप - विषमाग्नि - भूख, शौच विषम - तंत्रिका - तंत्र दौर्बल्य - अनिद्रा - वात का स्थान संश्रय मस्तिष्क और मूत्रवह संस्थान में अत: मूत्रवहस्रोतस् की अतिप्रवृत्ति परिणामत: अतिमूत्र प्रवृत्ति और मानसिक दौर्बल्य भी।

रोगी हुये डॉ. जय कुमार जैन साहब इस ८४ वर्ष की आयु में भी इतने संयमित और दृढ़ कि ‘आयुष ग्राम’ में आवासीय चिकित्सा क्रम में तीन दिन उन्हें जैन मंदिर दर्शन का अवसर नहीं मिला तो उन्होंने अन्नाहार नहीं लिया, फलाहार लेते रहे।

ऐसे दृढ़ संकल्प व्यक्ति एक तो रोगी नहीं होते, यदि हो भी जायें तो उन्हें स्वास्थ्य लाभ भी जल्द मिलता है क्योंकि किसी भी स्तर से उनसे कुपथ्य (बदपरहेजी) नहीं होती, संयम रहता है। वैदिक चिकित्सा का सिद्धान्त ही संयम पर आधारित है।

‘आयुष ग्राम’ में डॉ. जैन की ऐसी चिकित्सा विहित की गयी जो शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से डॉक्टर साहब को स्वस्थ करे।

कटिपक्वाशय अभ्यंग, स्वेदन और निरूहबस्ति शिरोधारा।

  • द्विगुणरौप्य वातचिन्तामणि, जवाहर मोहरा ३-३ ग्राम, अकीकपिष्टी १० ग्राम, बेर पत्थर भस्म ५ ग्राम, प्रवालपंचामृत मुक्तायुक्त ५ ग्राम और चन्द्रप्रभा वटी २० गोली घोंटकर ४५ मात्रा। १-१ मात्रा सुबह, दोपहर, शाम नाश्ता व भोजनोत्तर।
  • गोजिह्वादि गुग्गुल १*३ नाश्ता व भोजन के पूर्व।
  • मेध्याश कषाय और अखिलदोषामय कषाय ५-५ मि.ली. मिलाकर चतुर्गुण जल मिश्रण के साथ दिन में २ बार।
  • नाश्ते और दोपहर में- ४०० ग्राम फल (पपीता, अंगूर, सेब)
  • भोजन में- मूँग की दाल, रोटी, सब्जी।
  • उक्त औषधियाँ ‘आयुष ग्राम’ की निर्माणशाला में निर्मित कर केवल रोगियों के प्रयोज्यार्थ किया जाता है। यद्यपि यह काम श्रमसाध्य है पर लोकहित और कुछ करने की भावना के लिए हम सभी को श्रम तो करना पड़ेगा।

    ७२ घण्टे में ही डॉ. जयकुमार जैन को सकारात्मक परिणाम आने लगे नींद आने लगी, रक्तचाप घट गया और अति मूत्र प्रवृत्ति बहुत कम हो गयी सबसे बड़ी बात कि डॉ. जय कुमार जैन साहब सकारात्मक और आशावादिता की ओर बढ़ने लगे जो अभी तक कहीं नहीं हो पाया था।