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दमा-खाँसी से ऐसे छुटकारा पायें युवक-युवतियाँ!

(२४ घण्टे में खाँसी-दमा का इंजेक्शन छूट गया : आयुष ग्राम चित्रकूट से)

देश का कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि आज की सरकारें भी पूरी ताकत से अंग्रेजी चिकित्सा को गति और प्रगति दिये जा रही हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इस अंग्रेजी चिकित्सा का लाक्षणिक प्रभाव रोग के लक्षणों को दबाने में भले ही दिख जाय, पर इनसे जीर्ण जटिल रोगों में या शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा करने में प्रभाव की कल्पना तक नहीं की जा सकती। पर सरकारें जिले-जिले में अंग्रेजी चिकित्सा के कॉलेज खोलकर उसकी घोषणायें करके ढिढोरा पीट रही हैं। जिसके दूरगामी ऐसे दुष्परिणाम होंगे कि मानव शरीर, रासायनिक दवाओं का खजाना बन जाएगा, नये-नये रोग पैदा होंगे। जिसकी बानगी आज जगह-जगह दिख रही है, लोग ब्लडप्रेशर, थायराइड और शुगर की दवा खाते-खाते कुछ ही सालों में किडनी पेâल्योर के शिकार हो रहे हैं।

यदि सुयोग्य चिकित्सक, चिकित्सालय हो तो हमारे देश की वैदिक चिकित्सा इतनी तेजी से काम करती है जिसके सामने अंग्रेजी इलाज कहीं नहीं टिक पाता, जरूरत है जागरूकता लाने की। आयुर्वेद का सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल आयुष ग्राम चिकित्सालय, चित्रकूट में इसके नित्य जीते-जागते प्रत्यक्ष प्रमाण मिल रहे हैं।

आयुष ग्राम चिकित्सालय, चित्रकूट में २१ नवम्बर २०२१ की खचाखच ओपीडी चल रही थी, एक युवती को उसके परिजन मॉस्क लगवाये और दो लोग पकड़े हुये ओपीडी में पहुँचे। हाथ में ‘विग्गो’ लगा था ताकि लगातार नस में इंजेक्शन दिया जा सके।

युवती लगातार खाँसे जा रही थी, साँस फूल रही थी। पिता मिलन मिश्रा ने बताया कि हम शाहजहाँपुर के दिलीपपुर रौंतापुर से हैं। यह मेरी बेटी वैभवी मिश्रा उर्फ दिव्या मिश्रा उम्र १८ साल, बीएस-सी. की छात्रा है। फेफड़े और साँस की बीमारी तो इसे बचपन से है पर इधर ३-४ माह से साँस और खाँसी के साथ श्वास भी।

वाराणसी, लखनऊ और भी कई जगहों पर चिकित्सा करा रहे हैं। इधर १५ दिनों से लगातार डेरीफाइलिन और एविल इंजेक्शन देना पड़ रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि श्वास खाँसी का दौरा सायं ४ बजे ही पड़ता है। (यह वाक्य रोग निदान और हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण था)। रोगी का परीक्षण करने के बाद तुरन्त पंचकर्म और औषधि व्यवस्था पत्र लिखा गया साथ ही मना किया गया कि अब आप इंजेक्शन न दीजिएगा, किन्तु माता-पिता घबराये थे अत: ओपीडी के बाहर जाकर उन्होंने इंजेक्शन दे ही दिया। जानकारी होने पर हमने नाराजगी व्यक्त की।

हमने वातज कास सह संतमक श्वास का निदान करते हुए तत्काल निम्नांकित चिकित्सा व्यवस्था दी-

  • १. याकूती रस डेढ़ ग्राम, गरनाशन रस १ ग्राम, अभ्रक भस्म सहस्रपुटी २ ग्राम, टंकण भस्म ३ ग्राम, रससिन्दूर (षड्गुण) १ ग्राम सभी घोंटकर १२ मात्रा। १-१ मात्रा हर ४ घण्टे में अनुपान मधु से।
  • २. बलाजीरकादि कषाय २ चम्मच, बृहत्यादि कषाय २ चम्मच, इन्दुकान्त कषाय २ चम्मच सहपान गरम जल दिन में ३ बार।
  • ३. दशमूल हरीतकी १०-१० ग्राम दिन में २ बार चाटकर अनुपान गरम जल।

जैसा कि कु. वैभवी उर्फ दिव्या के पिता ने बताया कि इंजेक्शन देने के बाद वैभवी को खाँसी-श्वास का दौरा शाम ४ बजे पड़ता है इस लक्षण ने संकेत दिया कि जो भी व्याधि है उसमें वात विशेषत: प्रगतिशील है।

क्योंकि २ से ६ बजे तक शरीर में ‘वयोऽहोरात्रिभुक्तानां तेऽन्तमध्यादिगा: क्रमात्।।’ अ.हृ.सू. १/८।। विशेष रूप से ‘वात’ गतिशील हो जाता है।

यही वात का कफ पूर्वक प्रकोप (विशेष गतिशीलता और विषमता) जिससे प्राण, अन्न तथा उदकवह स्रोतों में रुकावट तथा कफ द्वारा रोकी गयी वायु का शरीर में प्रसरण और अन्य स्रोतों में गमन, परिणामत: दमा रोग की उत्पत्ति। दरअसल कफ के द्वारा वायु के मार्गों में रुकावट होती है श्वास-प्रश्वास के दौरान वायु प्रवेश एवं निष्कासन के लिए स्थान संकुचित हो जाता है अत: श्वास प्रक्रिया में कठिनाई आ रही है जिससे श्वास खाँसी होती है।

महर्षि चरक बताते हैं कि-

यदा स्रोतांसि संरुध्य मारुत: कफपूर्वक:।
विष्वग् व्रजति संरुद्धस्तदा श्वासान् करोति स:।।

च.चि. १७/४५

ध्यान रखने की बात यह है कि इस रोग में वात, कफ की विकृति थी फिर कफवृद्धि से अग्निमांद्य। इसलिए चिकित्सा करते समय कफ और वात प्रकोप दूर करने पर विशेष ध्यान, अग्निमांद्य दूर कर आमविष निवारण किया गया, रसधातु को निर्दुष्ट करना परिणामत: जो कार्य डेरीफाइलिन और एविल इंजेक्शन २४ घण्टे के लिए कर रहे थे वह कार्य यहाँ की चिकित्सा से स्थाई रूप से होने लगा।

एक और तथ्य ध्यान में रखना था कि वैदिक चिकित्सा में महर्षि चरक श्वास रोग में पित्तस्थान समुद्भव कहते हैं। इसीलिए संतमक श्वास में महर्षि चरक ने शीतैश्चाशु प्रशाम्यति।। च.चि. १७/६४।। कहा है।

यदि इस रोग में कोई गरम औषधि या चिकित्सा उपक्रम देकर समाधान करना चाहे तो वह संभव ही नहीं है। आचार्य जेज्जट बताते हैं न- ‘‘वात कफारब्धोऽपि पित्तसम्बन्धाच्द्दीतैरुपशाम्यतीव्याहु।।’’ अर्थात् वात कफ और पित्तानुबंधत्व का निवारण करना होगा।

जिस समय कु. वैभवी मिश्रा (दिव्या) आयी तो खाँसी बहुत अधिक थी तो पाया गया अपानवायु ऊपर के स्रोतों में जाकर ऊर्ध्वगतिशील थी और वहाँ से कण्ठ और उर:प्रदेश के छिद्रों स्रोतों व वाहनियों में प्रविष्ट होकर उन सब स्थलों को पूर्ण करती हुयी छाती पसलियों को वक्र तथा स्तम्भित कर रही थी परिणामत: कास की उत्पत्ति होती थी। यह हमारी वैदिक चिकित्सा कहती है-

अध:प्रतिहतो वायुरुध्र्वस्रोत: समाश्रित:।
उदानभावमापन्न: कण्ठे सक्तस्तथोरसि।।
अविश्य शिरस: खानि सर्वाणि प्रतिपूरयन्।
आभञ्जन्नाक्षिपन् देहं हनुमन्ये तथाऽक्षिणी।।
नेत्रे पृष्ठमुर: पाश्र्वे निर्भुज्य स्तम्भ्यंस्तत:।
शुष्को वा सकफो वाऽपि कसनात्कास उच्चते।।

च.चि. १८/६-८।।

इससे स्पष्ट हो गया न कि ‘कास’ में भी वायु की एक प्रमुख भूमिका है। आचार्य विजयरक्षित लिखते हैं कि ‘‘कासश्वासहिक्कानां निदानं समानम्।।’’ कि कास श्वास हिक्का में एक ही तरह के सामान्य कारण होते हैं।

ध्यान रखने की एक विशेष बात है कि जब भी ‘वायु’ प्रकोप होता हो स्रोतोरोध और शरीर के धारक/पोषक तत्त्वों की क्षति हो ही जाती है।

ऐसी वातज खाँसी तभी उत्पन्न होती है जब व्यक्ति में रूखे, ठण्डे और कषैले (चाय, कॉफी जैसे) खान-पान का संयोग होता है या भूखे रहकर काम-धाम करता रहता है, मल-मूत्र, उल्टी, आदि के वेगों को रोकता है इनसे शरीरान्तर्गत वात प्रकुपित (अति सक्रिय होकर विकृत) हो जाता है।

इस प्रकार निदान सिद्ध होने पर कु. वैभवी (दिव्या) को अभ्यंग और पिप्पल्यादि तैल की अनुवासन बस्ति विहित की गयी। आचार्य चरक निर्देश देते हैं कि-

वातघ्नसिद्धै: स्नेहाद्यैधूमैर्लेहैश्च युक्तित:।
अभ्यङ्गै: परिषेकैश्च स्निग्धै: स्वेदैश्च बुद्धिमान्।
बस्तिभिर्बद्धविड्वातं शुष्कोध्र्वभक्तिकै:... ... ।।

च.चि. १८/३३-३४।।

महर्षि सुश्रुत भी कहते हैं-

स्नेहबस्तिं विना केचित् ऊध्र्वञ्चाधश्च शोधनम्।
मृदु प्राणवतां श्रेष्ठं श्वासिनामादिशान्ति हि।।

(सु.उ.तं. ५१/१५)

अनुवासन के पश्चात् बलाजीरकादि कषाय की निरूह बस्ति भी दी गयी।

चमत्कार हो गया इंजेक्शन बन्द हो गये!!

पहले दिन की ही चिकित्सा से खाँसी और श्वास का वेग रुक गया और दूसरे दिन इंजेक्शन की जरूरत नहीं पड़ी।

इस प्रकार लगातार २ सप्ताह की चिकित्सा से छात्रा वैभवी मिश्रा को रोग मुक्ति मिल गयी, पूरे परिवार के लोग प्रसन्न हो गये। आगे की औषधियाँ और पथ्य सेवन की सलाह देकर इन्हें डिस्चार्ज किया जाना है। घर में सुबह रास्नादि घृत सेवन भी प्रेस्क्राइब्ड है।

पंचकर्म से शरीर में जमे दूषित वायु सहित विषाक्त द्रव्यों का निर्हरण हुआ तो उधर औषध योग ने प्राणवह स्रोतस् में आये विकार को दूर किया तो जाठराग्नि, धात्वाग्नि को बढ़ाकर शरीर के धारक/पोषक तत्त्वों की तेजी से पूर्ति हुयी परिणामत: खाँसी श्वास मिट गयी। इस योग में गरनाशन रस का प्रयोग इसलिए किया जाना उचित है कि शरीर में लगातार और लम्बे समय से जो विषैली, रुक्ष अंग्रेजी दवाओं का प्रयोग हो रहा था उससे भी शरीर में एक प्रकार की विषाक्तता और रक्त में अम्लीयता बढ़ रही थी जिससे शरीर का पोषण न होता और रोग न मिटता। गरनाशक रस ‘योगरत्नाकर’ का योग है यह कृत्रिम या उप विष दोनों को नष्ट कर देता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यदि रोगी उस समय तक आ जाय कि जब तक शरीर बहुत जर्जर न हुआ हो तो अंग्रेजी चिकित्सा से बहुत अच्छे परिणाम आते हैं। बस! आवश्यकता है जन-जन तक अपनी बात पहुँचाने की।

- आचार्य डॉ. मदनगोपाल वाजपेयी!
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हम सारगर्भित विचारों को आयुष ग्राम मासिक और चिकित्सा पल्लव में स्थान देंगे।

सर्व प्रजानां हितकाम्ययेदम्

"चिकित्सा पल्लव" - मासिक पत्रिका
अंक -3 पृष्ठ 20-21 मार्च 2024

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आचार्य डॉ. मदनगोपाल वाजपेयी

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