चक्कर मिटा देती दुरालभ
‘‘पिबेद् दुरालभाक्वाथं सघृतं भ्रमशान्तये।।’’ (चक्रदत्त १७/८)
वैदिक चिकित्सा आयुर्वेद ऋषियों की वह धरोहर ऐसी ज्ञान शृंखला है जो कि मानव मात्र के लिए अजस्र सुख का वरदान लिए है और वह भी बहुत सहजता में, सरलता में तथा निरापद अवस्था में। बस! इसके लिए आवश्यक है ज्ञान, साधना और प्राणाचार्य जैसे योग्य चिकित्सक हों तो रोगी साध्य धैर्यवान् और आश्वस्त हो अच्छी और सुलभ औषधियाँ हों तथा कत्र्तव्य परायण परिचारक हों।
आयुष ग्राम परिसर में २२ जनवरी २०२४ को भगवान् राम की प्राण प्रतिष्ठा महायज्ञ के आयोजन की तैयारियाँ चल रही थीं उसमें शामिल होने के लिए (पन्ना अहिरगुवां निवासी) श्री श्याम प्रकाश शुक्ल उम्र ६३ जो हमारे मिशन के अच्छे सहयोगी हैं वे आये। हम अपनी कुटी में चौकी में बैठे थे, उन्होंने सिर रखकर प्रणाम तो किया पर बोले कि ‘‘महाराज! बहोत तकलीफ है चक्कर आ रये, सर्वाइकल स्पॉण्डिलाइटिस हो गौ, हम सिर रखके प्रणाम नई कर पा रये।’’
हम सहज भाव में मुस्कराये और उन्हीं की बोली में कहा कि अच्छा सर्वाइकल स्पॉण्डिलाइटिस हो गौ, चक्कर आ रये।
आगे हमने कहा कि अरे भइया! विश्व के प्रथम सर्जन आचार्य सुश्रुत कहते हैं-
रज: पित्तानिलाद् भ्रम:।। सु.शा. ४/५६।।
अर्थात् चक्कर आने का मूल कारण रजोगुण, पित्तविकृति और वायु विकार है। सर्वाइकल सपॉण्डिलाइटिस नहीं। हमने उनका कष्ट देखा, वास्तव में बहुत कष्ट था। हम तुरन्त उठे और ओपीडी पहुँचे, फार्मेसिस्ट सारिका गुप्ता को बुलाकर उनका रजिस्ट्रेशन कराया और निम्नांकित चिकित्सा व्यवस्था लिखी-
- दुरालभा (घृत के साथ) प्रत्येक चार घंटे में।
- रसोनक्षीरपाक प्रात: ७ बजे।
- विभीतकी त्रिकटु कषाय २०-२० मि.ली. भोजन के पूर्व।
- प्रभाकर वटी, मुक्तापिष्टी, हृदयार्णव रस का मिश्रण ५००-५०० मि.ग्रा. मधु से।
श्री शुक्ला जी का पंचकर्म द्वारा शरीर शोधन कुछ काल पूर्व किया ही था। ऐसे में औषधियों का प्रभाव तुरन्त हुआ।
पथ्य- सादा सुपाच्य भोजन।
आप विश्वास करें कि औषधि प्रयोग के २ घण्टे के अन्दर चक्कर आना कम हो गये। दूसरे दिन ५० प्रतिशत से अधिक आराम मिल गया, सात दिन में पूर्ण आरोग्य प्राप्ति हो गयी। शरीर में नवीन उत्साह, चेतना और शक्ति का संचार हो गया। पूरे मनोयोग से उन्होंने आयुष ग्राम में प्रभु श्रीराम की प्राण-प्रतिष्ठा में सहभागिता की।
जैसे ही श्री शुक्ल जी ने कहा कि चक्कर आ रहे हैं तो हमें तुरन्त चक्रदत्त का सूत्र
पिबेद् दुरालभाक्वाथ: सघृतं भ्रमशान्तये।। च.द. १७/८।।
सूत्र स्मरण आया।अब आप सुधी जनों को बताना आवश्यक है कि इस व्यवस्था पत्र का वैज्ञानिक विश्लेषण क्या है, आखिर ये औषधियाँ ही क्यों प्रयोग की गयीं और त्वरित लाभ वैâसे हुआ?
श्री शुक्ल जी का शरीर मेदस्वी और कुछ वर्षों पूर्व उन्हें भयंकर हार्ट अटैक भी आया था, मॉडर्न डॉक्टर बाईपास सर्जरी करने जा रहे थे जैसे ही हमें पता चला तो हमने इन्हें नर्सिंग होम के आईसीयू से निकाल कर आयुष ग्राम चिकित्सालय ले आये और रखकर स्वस्थ किया था और आज भी स्वस्थ हैं।
स्थूलता में उन्हें स्रोतसावरोध और धातुक्षय (प्ंज्ञ्१०-१२) रहता ही है, मेदोवह स्रोतस्दुष्टि, प्रारम्भ में अग्निमांद्य, शिथिलता, रजोदोष की वृद्धि जिसके कारण तृष्णा, लालसा, अशान्ति, बेचैनी, घबराहट और तनाव, क्रोध, चिड़चिड़ापन।
दुरालभा ऐसा द्रव्य है जो लघु, स्निग्ध, गुणयुक्त, कषाय, तिक्त, मधुर, कटु, रस युक्त है, इसका विपाक मधुर और वीर्य उष्ण है। यह अपने मधुर विपाक और वीर्य से कार्य करती है, गोघृत के साथ सेवन से इसका स्निग्ध माधुर्य गुण और बढ़ जाता है जिससे दुरालभा का वातपित्त शामक सामथ्र्य विशेष होकर भ्रम (चक्कर) को मिटा देता है।
आपने ऊपर पढ़ा ही है कि रज: पित्तानिलाद् भ्रम: (सु.शा. ४/५६)।।
अर्थात् रजोगुण और वात-पित्त के असंतुलित होने से ही भ्रम (चक्कर) आते हैं। दुरालभा जिसे धन्वयास भी कहते हैं, यह नाड़ीतंत्र (मस्तिष्क) के लिए विशेष बलवर्धक है। यह सिद्धान्त है कि रजो बहुलां वायु: अर्थात् रजोगुण और वायु का नित्य सम्बन्ध है तो जैसे ही वात दोष का शमन होगा तो रजोगुण भी शांत होगा जिससे शांति मिलेगी, घबराहट, बेचैनी, तनाव, तृष्णा मिटेगी, चिड़चिड़ापन हटेगा।
अब हमें चाहिए थी ऐसी औषधि जो पाचन को ठीक करे, बलवर्धक भी हो, स्रोतोरोध का निवारण करे। इस आतुर में स्रोतोरोध ‘संग’ प्रकार का था उसे हटाने के लिए उष्ण, तीक्ष्ण, कटु रस चाहिए। ऐसे में हमने चयन किया रसोन का।
रसोन चूँकि-‘बृंहणो वृष्य: स्निग्धोष्ण: पाचन: सर:।
रसे पाके च कटुस्तीक्ष्णो मधुरको मत:।।’
(भा.प्र.)
यह बलवर्धक, शुक्रधातु को बढ़ाता है, पाचन भी है और सर भी है, कटु तीक्ष्ण होने से इसने मेदोवह स्रोतस की संग दुष्टि को हटाने का कार्य किया, क्षीर पाक होने से इसका बृंहणत्व और वृष्यत्व गुण और श्रेष्ठ हुआ। बृंहणत्व और वृष्यत्व गुण के कारण इसमें मनोबल और शरीर बल बढ़ाने का कार्य भी होता है। अपने स्निग्ध, पिच्छिल, गुरु गुण से वात का शमन करता है ‘रजो बहुलां वायु:’ के अनुसार वात का शमन होने से रजोदोष का शमन होता है।
यद्यपि रसोन सर तो है किन्तु मलभेदन नहीं है न ही श्लेष्मा निवारक है। श्री शुक्ल जी का शरीर वात श्लेष्मल प्रकृति का है, उन्हें बहुत समय से विबन्ध रहा शायद वे अपने जीवन में २-४ क्विंटल हरड़ खा गये होंगे। अत: हमने विभीतिका त्रिकटु कषाय उनके लिए चयन किया क्योंकि विभीतिका को सुश्रुत ने ‘भेदनं लघु’ बताया है।
श्री शुक्ल जी का हृदय रुग्ण रहता है इसलिए साथ में हृद्य औषधियाँ देनी ही थीं तो प्रभाकर वटी, मुक्ता और हृदयार्णव रस का भी प्रयोग किया।
इस प्रकार श्री शुक्ल जी चक्कर आने की बीमारी से आज भी मुक्त हैं। यह लेख लिखने का उद्देश्य यह भी है कि यदि यही केस एलोपैथ गया होता तो सर्वाइकल स्पॉण्डिलाइटिस का निदान कर पट्टा बँधवा देना, ‘चक्कर रोधी’ मेडिसिन खिलाना और इसके बाद भी चक्कर आना मिटेंगे? इसकी कोई गारण्टी नहीं और अंत में सर्वाइकल के नाम ऑपरेशन भी कर देंगे। फिर रोगी जीवनभर यह नहीं कह पाता कि स्वस्थ हूँ। जबकि आयुष चिकित्सा से यह अतिरिक्त लाभ हुआ कि श्री शुक्ल जी आज भी कह रहे हैं जो पूरे दिन शिथिलता और हाथ-पैरों में ऐंठन थी वह पूरी तरह से मिट गयी, जो पूरा दिन सोने और पड़े रहने का मन होता था वह अब उत्साह में बदल गया है।