ऐसे सम्हाल लें ऋतुचर्या तो बीमारी नहीं!!
स्वास्थ्यं सदेप्सितम् (भा.प्र.पू.ख.4/13)।। यह गूँज धरती में तब से सुनाई दे रही है जबसे मानव सृष्टि है।
अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को अपना स्वास्थ्य प्रिय है। पर इसके लिए स्वयं कदम बढ़ाना होगा, भाव प्रकाश कहते हैं कि यदि स्वास्थ्य प्रिय है तो व्यक्ति को शास्त्र के अनुसार दिनचर्या (Daily Routine), रात्रिचर्या (Night Routine) और ऋतुचर्या (Sea- sonal Routine) का पालन करना होगा।
भारत के प्राच्य चिकित्सा वैज्ञानिकों में एक आचार्य भावमिश्र का नाम आता है उन्होंने दो टूक शब्दों में ऐसे लिखा कि-
दिनचर्यां रात्रिचर्यामृतुचर्यां यथोदितम्।
आचरन् पुरुषः स्वस्थः सदा तिष्ठति नान्यथा
।। भा.प्र.पू.ख.4/13।।
यदि स्वस्थ रहना है, अस्पतालों से बचना है तो शास्त्र में जिस तरह से दिनचर्या, रात्रिचर्या और ऋतुचर्या बतायी गयी है उसी के अनुसार आचरण करते हुए जीवन को चलाना चाहिए तो स्वस्थ रहने की पूरी गारण्टी है अन्यथा बीमारी आना तय है।
भावमिश्र के शब्दों पर यदि हम गौर करते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने लिखा कि 'सदा।'
अर्थात् इसमें कोई समझौता नहीं है। आचार्य चरक ने भी (च.सं. सूत्र 6/3) में कह दिया कि किस ऋतु में कौन सा खान- पान, कौन सी जीवनशैली अनुकूल है और कौन सी प्रतिकूल इसको अच्छे से समझें और उसका पालन करें तो व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, शरीर का तेज भी बढ़ता है।
हम आप प्रत्यक्ष देखें और विचार करें कि लोगों में अधिकांश शारीरिक समस्यायें और रोगावस्थायें विशेष रूप से मौसम परिवर्तन पर आती हैं, अस्पतालों में कतार बढ़ने लगती है। यह भी देखें कि जो स्त्री-पुरुष किसी जटिल बीमारी से ग्रस्त है उनमें या जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर है उनमें भी ऋतु परिवर्तन या ऋतु विपर्यय के साथ बीमारी अवश्य बढ़ती है। क्योंकि या तो उनको ऋतु के अनुसार खान-पान, रहन- सहन का ज्ञान नहीं होता, या तो उनका शरीर मौसम के परिवर्तन और प्रभाव को झेलने में समर्थ नहीं रहता।
इसलिए सदैव ऋतु सात्म्य पर ध्यान रखना चाहिए। मुख्यतः नई पीढ़ी को ऋतुचर्या के सम्बन्ध में अवश्य ध्यान देना चाहिए क्योंकि पुराने लोग तो बड़े बुजुर्गों से ये सब सीखे होते हैं तो सावधान भी रहते हैं और ऋतुचर्या का पालन भी करते हैं परिणामतः उनकी सेहत ठीक रहती है किन्तु नई पीढ़ी के युवक-युवतियाँ इस दिशा में अनजान, लापरवाह और अपरिपक्व हैं परिणामतः वे ऋतुजन्य व्याधियों से शीघ्र प्रभावित होते हैं फिर रोग को दबाने के लिए दवायें ढूँढ़ते हैं जिससे एक रोग लक्षण तो दब जाता है पर अन्य रोग पनपने लगते हैं।
यह वसंत ऋतु है इस ऋतु में उन सभी को कफ दोष का प्रकोप होता है जिनमें कफ का संचय हुआ। पर उनमें कफ दोष का प्रकोप नहीं होता जिनमें अग्निव्यापारक्रम संतुलित है परिणामतः रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी है।
कहने को तो छोटी सी बात है कफ प्रकोप। पर कफ दोष के असंतुलित होने से 20 प्रकार की व्याधियाँ और अनेकों शाखानुशाखायें बन जाती हैं। जो रोग प्रतिरोधक क्षमता को असंतुलित करती हैं, किसी में यही समस्यायें लम्बी बीमारी का रूप ले लेती हैं तो किसी में जटिल बीमारी का।
कफ दोष का जब प्रकोप होता है, तो शरीर का वर्ण विकृत होता है, कफ अपने शीत गुण से शरीरगत उष्मा को कम करने लगता है और तो और शरीर की पाचकाग्नि अवसादित हो जाती है परिणामतः अग्निमांद्य (Digetion abnormal) हो जाता है इससे शरीर में एक तरह विषैला और रोगकारक पदार्थ बनने लगता है जिसे 'आम' कहते हैं यह गठिया, सूजन, यकृत् विकार, किडनीरोग, हृदय रोग, स्रोतोदुष्टि और धातुक्षय रस, रक्तादि की कमी आदि समस्यायें ला देता है।
कफ की विकृति के कारण शरीर में लम्बे समय तक सुस्ती, उत्साहहीनता बनी रहती है। कफ का गुण स्थिर होता है यह गत्यात्मक क्रियाओं का विरोध करता है। इसलिए गतिशील अंगों में स्थिरता आ जाती है।
काश्यप संहिता सूत्र 26/41-42 में कफ विकारों की चर्चा कुछ विशेष मिलती है उसमें से है 'धमनीकण्ठलेपकौ' 'आमं च गलगण्डश्च।'
इससे सिद्ध होता है कि धमनी
प्रतिचय (हार्ट की नसों में ब्लॉकेज / सी.ए.डी.) तथा हायपोथायराइड जैसी जीवन व्यापी रोगों का मूल कारण कफ दोष ही है। कफ की वृद्धि से एक परत सी जम जाती है जिसे आयुर्वेद की भाषा में 'उपलेप' कहते हैं परिणामतः स्स्रावित होने वाले स्रावों का अवरोध हो जाता है। कफ विकार से माधुर्यजनक प्रमेह विकारों की उत्पत्ति होती है। महर्षि काश्यप ने 27/44 में 'माधुर्यं कफलक्षणम्।' कहा है। इस प्रकार थोड़ी सी लापरवाही से शारीरिक समस्याओं को बहुत झेलना पड़ सकता है।
इसीलिए विश्व के प्राचीन भारतीय चिकित्सा वैज्ञानिक आचार्य चरक अति संक्षेप में लिख देते हैं-
कायाग्निं बाधते रोगांस्ततः प्रकुरुते बहून् ॥ च.सू. 6/22।।
अर्थात् बढ़ा हुआ कफ दोष कायोग्नि (Body fine) दूषित कर देता है परिणामतः अनेकों रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
उपाय- वसंत ऋतु आनी है और कफ दोष का प्रकोप होना है तो-
कफश्चितो हि शिशिरे वसन्तेऽर्काशुतापितः।
हत्वाऽग्निं कुरुते रोगानतस्तं त्वरया जयेत्॥
अ.हृ.पू. 3/18
लिखते हैं कि संचित कफ जो वसंत ऋतु की गर्मी पाकर पिघलता है यह पहले अग्नि (रोगप्रतिरोधक शक्ति/पाचन शक्ति) को प्रभावित करता है फिर रोग पैदा करता है। इसीलिए 'वाग्भट 'त्वरया जयेत्' लिखकर चेतावनी दे रहे हैं कि इसे शीघ्र जीत लेना चाहिए।
इसके लिए प्रधान उपाय के रूप में आचार्य चरक वमन कराने का तो वाग्भट 'तीक्ष्ण वमन' कराने का निर्देश देते हैं जो आज सभी के लिए सुलभ नहीं है। क्योंकि 'तीक्ष्ण वमन' पंचकर्म चिकित्सा विशेषज्ञ द्वारा और पंचकर्म सुविधा युक्त चिकित्सा केन्द्र में ही संभव है।
आचार्य चरक कहते हैं कि वसंत ऋतु में-
व्यायाम- शारीरिक परिश्रम अवश्य करें, दण्ड बैठक, कसरत भी करना चाहिए। इससे शरीर में गर्मी उत्पन्न होकर संचित कफ शरीर में ऊर्जा के रूप में परिवर्तित हो जाता है इससे शरीर में मजबूती आती है और आरोग्य की प्राप्ति होती है।
उबटन- वसंत ऋतु में उबटन का प्रयोग करना चाहिए इससे शरीर के रोमकूप खुलते हैं और शरीर में संचित कफ जलकर शरीर की धातुओं को मजबूत करता है पर दुर्भाग्य है कि देश में अत्यन्त प्रचलित उबटन की यह परम्परा बिल्कुल मिट गयी है। इसे पुनः घर-घर में जागृत करना चाहिए।